ब्रह्मण्ड का स्वरूप और पञ्चतत्व
ब्रह्मण्ड का स्वरूप और पञ्चतत्व
मूल रूप से हमारा ब्रह्माण्ड एक अँधेरे और ठण्डे के रूप में स्थित है। जिसमें ज्यादातर हिस्सा करीब तीन चौथाई वह है जो कभी सृष्टि में दृष्टिगोचर नहीं होता,आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहें, तो वो डार्क एनर्जी या डार्क मैटर है।
दूसरी तरफ सृष्टि में जो बाकी भाग है, वो उत्पन्न वृद्धि और प्रलय में निरंतर चलता रहता है।
जिसमें स्फोट मत के सिद्धांत से ऊर्जा और प्रकाश है।
मनुष्य जिस भाग में रहता है, वो यही एक चौथाई भाग का गर्म और प्रकाशमान ब्रह्माण्ड है।
इस पूरी बात का निचोड़ सामान्य बोलचाल में अक्सर एक कहावत से प्रचलन में आता है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु सूचक अर्थ में उसका ठण्डा पड़ जाना कहते हैं।
गर्म अर्थात् जीवन, ठण्डा अर्थात् मृत्यु
किसी मेहमान के आने पर गर्मजोशी से स्वागत करना जीवंत होने का परिचायक है।
इसी प्रकार जीवन के लिऐ मनुष्य को सबसे अधिक गर्मी की आवश्यकता होती है जो कि हमें सूर्य से प्राप्त होती है।
पौधे को अपना भोजन बनाने में ९०% भाग सूर्य से १०% भाग जल से प्राप्त होता है बाकी के सुक्ष्म अवयव मिट्टी से प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार मनुष्य के लिऐ जीवन का आधार गर्मी है या पंचतत्व की दृष्टि से अग्नि है।
अग्नि से ही पाचन होता है और मनुष्य को ऊर्जा मिलती है।
इसलिऐ रोगों से लड़ने में सबसे सक्षम अग्नि ऊर्जा है। अग्नि ऊर्जा की वो अवधि जिस समय ये मनुष्य में सबसे प्रबल होती है १२-३६ वर्ष मानी है। इसलिऐ इस उम्र के व्यक्ति सबसे कम बीमार होते हैं।
आपने देखा होगा जो लोग रात को भी स्नान करते हैं वो इसी उम्र का व्यक्ति होगा। क्यूँकि उसके अन्दर सबसे अधिक ऊर्जा है।
इसी क्रम में वायु ऊर्जा भी अत्यधिक महत्तवपूर्ण है जो कि शरीर को गति देती है।
एक उदाहरण से देखिये जैसे इंजन में ईंधन से गर्मी पैदा की जाती है और वायु को खींचकर उसमेें गर्मी मिश्रित करते हैं तभी इंजन गति पैदा करता है।
श्वसन से हमारे अन्दर हर समय इसी प्रकार की क्रिया कोशिकाओं में होती रहती है जिससे हमें ऊर्जा मिलती रहती है।
जिस प्रकार इंजन को ठण्डा करने के लिऐ पानी की जरूरत होती है वैसे ही जल शरीर को ठण्डा रखता है।
अब पंचतत्व ऊर्जा में यदि आप देखें तो आकाश ऊर्जा की आवश्यकता सबसे कम पड़ती है।
इन्हीं ऊर्जाओं को भोजन के रस के हिसाब से देखें तो हमें कसाय भोजन की आवश्यकता सबसे कम होती है। तीखा या चटपटा की आवश्यकता अधिक है। यहाँ ये समझने की आवश्यकता भी है कि तीखा मतलब सिर्फ मिर्च से नहीं है बल्कि पित्त को बढ़ाने वाली हर चीज अग्नि ऊर्जा में मानी जायेगी।
फिर इसी क्रम में नमकीन मीठे और खट्टे की भी बराबर आवश्यकता है।
ऊर्जा सिद्धान्त पर पुनः आते हैं तो ये समझना आसान है कि तीखे के प्रभाव को कम करने के लिऐ नमकीन, नमकीन के प्रभाव को कम करने के लिऐ मीठा और मीठे के प्रभाव को कम करने के लिऐ खट्टा खाना चाहिऐ।
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी शारीरिक ऊर्जा बनावट से उसकी स्वाद और प्रकृति में भिन्नता स्वाभाविक है। इसी भिन्नता को परख कर ऊर्जाओं में संतुलन करना पंचतत्व चिकित्सा का भाग है।
बहोत बढ़िया आंकलन दिया समज में आ जाये ऐसे
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