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मौसम, ऋतु और पँचतत्व

आओ मित्रों, 
आज हम समझेंगें यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे के अनुसार जब प्रकृति प्रदत्त  मौसम / ऋतु चक्र और पँचतत्व में क्या समानता है,यह मौसम एक वर्ष की अवधि में अपने नियत समय पर परिवर्तित होता है और जब होता है, तब मन, मस्तिष्क और आचार, विचार , व्यवहार और अपने आसपास वातावरण में क्या परिवर्तन होता है। 

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ऋतुएं प्राकृतिक अवस्थाओं के अनुसार वर्ष का छोटा कालखंड है जिसमें मौसम की दशाएं एक खास प्रकार की होती हैं। यह कालखण्ड एक वर्ष को कई भागों में विभाजित करता है जिनके दौरान पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के परिणामस्वरूप दिन की अवधि, तापमान, वर्षा, आर्द्रता इत्यादि मौसमी दशाएं एक चक्रीय रूप में बदलती हैं। Gregorian calendar के मुताबिक चार ऋतुएं मानी जाती हैं- वसंत (Spring), ग्रीष्म (Summer), शरद (Autumn) और शिशिर (Winter)। लेकिन भारत में चार ऋतुओं का नहीं बल्कि छह ऋतुओं वर्णन किया गया है।

प्राचीन काल में यहां छह ऋतुएं मानी जाती थीं- वसंत (Spring), ग्रीष्म (Summer), वर्षा (Rainy) शरद (Autumn), हेमंत (Pre-Winter) और शिशिर (Winter)। छः ऋतुओं में प्रत्येक ऋतु का चक्र दो-दो महीने का बन जाता है। वैशाख और जेठ के महीने ग्रीष्म ऋतु के होते हैं। आषाढ़ और सावन के महीनों में वर्षा ऋतु होती है। भाद्र और आश्विन के दो महीने शरद् ऋतु के होते हैं। हेमंत का समय कार्तिक और अगहन (मार्गशीर्ष) के महीनों का होता है। शिशिर ऋतु पूस (पौष) और माघ के महीने में उतर आती है, जबकि वसंत का साम्राज्य फाल्गुन और चैत्र के महीनों में होता है। ऋतु वर्णन पर तो महाकवि कालिदास ने पूरी काव्यरचना ही कर डाली थी। ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम काव्यरचना मानी जाती है, जिसके छह सर्गो में ग्रीष्म से आरंभ कर वसंत तक की छह ऋतुओं का सुंदर प्रकृतिचित्रण प्रस्तुत किया गया है।

ऋतुओं का चक्र फसल, वन, पशु-पक्षियों और भारतीयों को प्रत्येक रूप में प्रभावित करता है। वस्त्र पहनने से लेकर भोजन और देशाटन भी इससे प्रभावित होता है। इस ऋतु की आश्चर्यचकित करने वाली एक अन्य विशेषता भी है। कभी राजस्थान की मरूभूमि जल की बूँद के लिए तरसती है तो चिरापूँजी में वर्षा की झड़ी रूकने का नाम ही नहीं लेती है। जब भारत का दक्षिण भाग गरम रहता है तो उत्तरी भाग शीत से ठिठुर जाता है। कई प्रांत कभी प्रचंड लू में तपने लगते हैं तो दूसरे प्रांतों में पानी को बर्फ में जमा देने वाली ठंड पड़ती है। ऋतुओं का यह चक्र एक ही प्रकार की अनुभूति से बचाता है और बेचैनी के क्षणों को फिर से परिवर्तित कर देता है। कभी धरती तपने लगती है, कभी वर्षा की झड़ी में नहाने लगती है, कभी बर्फ़ की श्वेत चादर ओढ़ लेती है तो कभी वसंत की मादक-मोहक रंगों से सजी धजी नवयौवना बनकर खिलखिलाती है।

क्र.म.

 ऋतुएँहिंदी माहग्रेगोरियन माह   तापमानमौसमों के त्यौहार
1.वसंत (Spring)चैत्र और वैशाखमार्च, अप्रैल20-30 डिग्री सेल्सियसबसंत पंचमी, गुडी पडवा, होली, रामनवमी, वैशाखी/ हनुमान जयंती 
2.ग्रीष्म (Summer)ज्येष्ठ और आषाढमई, जूनबहुत गर्म, 40- 50 डिग्री सेल्सियसवट पूर्णिमा, रथ यात्रा और गुरु पूर्णिमा
3.वर्षा (Rainy)सावन और भाद्रपदजुलाई, अगस्तगर्म, उमस और बहुत ज्यादा वर्षारक्षा बंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी
4.शरद (Autumn)आश्विन और कार्तिकसितम्बर, अक्टूबर19-25 डिग्री सेल्सियसनवरात्रि, विजयादशमी, शरद पूर्णिमा
5.हेमंत (pre-winter)मार्गशीर्ष और पौषनवंबर, दिसंबर20-15 डिग्री सेल्सियसदीपावली और कार्तिक पूर्णिमा
6.शिशिर (Winter)माघ और फागुनजनवरी, फरवरी10 डिग्री से काम हो सकता है.

संक्रांति, महाशिवरात्रि

 

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वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत इन 6 ऋतुओं में से वसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। जो फरवरी, मार्च माह में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ महीने की शुक्ल पंचमी से 

giphyवसंत ऋतु का आरंभ होता है। फाल्गुन और चैत्र मास वसंत ऋतु के माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम मास है और चैत्र पहला। इस प्रकार हिंदू पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ वसंत में ही होता है। इस ऋतु के  आने पर सर्दी कम हो जाती है। मौसम सुहावना हो जाता है। पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं। आम बौरों से लद जाते हैं और खेत सरसों के फूलों से भरे पीले दिखाई देते हैं अतः राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी गई है और इसे ऋतुराज कहा गया है।

इस ऋतु में होली, धुलेंडी, रंगपंचमी, बसंत पंचमी, नवरात्रि, रामनवमी, नव-संवत्सर, हनुमान जयंती और गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाए जाते हैं। इनमें से रंगपंचमी और बसंत पंचमी जहां मौसम परिवर्तन की सूचना देते हैं वहीं नव-संवत्सर से नए वर्ष की शुरुआत होती है।  इसके अलावा होली-धुलेंडी जहां भक्त प्रहलाद की याद में मनाई जाती हैं वहीं नवरात्रि मां दुर्गा का उत्सव है तो दूसरी ओर रामनवमी, हनुमान जयंती और बुद्ध पूर्णिमा के दिन दोनों ही महापुरुषों का जन्म हुआ था।

वसंत ऋतु में वसंत पंचमी, शिवरात्रि तथा होली नामक पर्व मनाए जाते हैं। भारतीय संगीत साहित्य और कला में इसे महत्वपूर्ण स्थान है। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है जिसे राग बसंत कहते हैं।

‘पौराणिक कथाओं के अनुसार वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है। देव (कवि) ने वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है कि रूप व सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है। पेड़ों उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते है, फूल वस्त्र पहनाते हैं पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है ऋतुओं में मैं वसंत हूँ— क्या कहा देव (कवि) ने-

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव केसुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।

पवन झूलावैकेकी-कीर बतरावैं देव’, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।।

पूरित पराग सों उतारो करै राई नोनकंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।

मदन महीप जू को बालक बसंत ताहिप्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥

अर्थात- प्रस्तुत कवित्त में देव (कवि) ने वसंत ऋतू का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है. उन्होंने वसंत की कल्पना कामदेव के नवशिशु के रूप में की है. पेड़ की डाली बालक का झुला है. वृक्षों के नए पत्ते पलने पर पलने वाले बच्चे के लिए बिछा हुआ है. हवा स्वयं आकर बच्चे को झुला रही है. मोर और तोता मधुर स्वर में बालक का बालक का मन बहला रहे हैं. कोयल बालक को हिलाती और तालियाँ बजाती है. कवि कहते हैं कि कमल के फूलों से कलियाँ मानो पर अपने सिरपर पराग रूपी पल्ला की हुई है, ताकि बच्चे पर किसी की नज़र न लगे. इस वातावरणमें कामदेव का बालक वसंत इस प्रकार बना हुआ है की मानो वह प्रातःकाल गुलाब रूपी चुटकी बजा बजाकर जगा रही है.

वेद और पुराणों में वसंत ऋतु

ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवत

अर्थात- ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्घिप्रज्ञा और मनोव्त्तियों की संरक्षिका हैं। हममे जो आचार और मेघा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भूत है।

रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने वसंत का अत्‍यंत मनोहारी चित्रण किया है-

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भगवान कृष्ण ने गीता में ऋतुनां कुसुमाकरः‘ कहकर वसंत को अपनी सृष्टि माना है-

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।

मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कुसुमाकर: ॥

अर्थातृ- गायन-शास्त्र में वृहत् सामवेद हूँ छन्द-गायत्री छन्द-कलाप में। द्वादश-मास में मार्गशीर्ष मास हूँ ऋतुओं में हूँ कुसुमाकर (वसंत) मैं।

वामन पुराण में कामदेव के भस्म होकर अनंग हो जाने का वर्णन नहीं मिलता, बल्कि वह सुगन्धित फूलों के रूप में परिवर्तित हो गया। इस पुराण में बसंत का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है-

ततो वसन्ते संप्राप्ते किंशुका ज्वलनप्रभा:।

निष्पत्रा: सततंरेजु: शोभयन्तो धरातलम्॥ (वामन पुराण 1/6/9)

अर्थातृ- बसन्त ऋतु के आगमन पर ढाक के वृक्षलाल वर्ण वाले पुष्पों के कारण अग्नि के समान प्रभा वाले प्रतीत हो रहे थे। उन लाल पुष्पों के गुच्छों से लदे वृक्षों के कारण धरा शोभायमान हो रही थी।

ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसी दिन भारत वर्ष में काल गणना प्रारंभ हुई थी। कहा है कि :-

चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि

शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। – ब्रह्म पुराण

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु में वृक्षलता फूलों से लदकर आह्लादित होते हैं जिसे मधुमास भी कहते हैं। इतना ही यह वसंत ऋतु समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची धरती को विभिन्न प्रकार के फूलों से अलंकृत कर जन मानस में नववर्ष की उल्लासउमंग तथा मादकाता का संचार करती है।

कालिदास ने ऋतुसंहार में बसंत का जैसा वर्णन किया हैवैसा कहीं नहीं दिखाई देता-

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदमस्त्रीय सकामा: पवन: सुगंधी:।

सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:सर्व प्रिये चारुतरं वसंते।।

अलका! यह नाम लेते ही नयनों के सामने एक चित्र उभरता है उस भावमयी कमनीय भूमि का,  जहां चिर-सुषमा की वंशी गूंजती रहती हो, जहां के सरोवरों में सोने के कमल खिलते हों, जहां  मृण-तरू पात चिर वसंत की छवि में नहा रहे हों। अपार यौवन, अपार सुख, अपार विलास की  इस रंगस्थली ने महाकवि कालिदास की कल्पना को अनुप्रमाणित किया। उनकी रस प्राण वाणी  में फूट पड़ी विरही-यक्ष की करुण गाथा।

ऋतुसंहार के षष्ठ सर्ग में गीतकार वसंत को एक आक्रामक योद्धा की तरह चित्रित करता है- बोलता है, प्रियतमे ! देखों यह वसन्त योद्धा कामी जनों के मन को बेचने के लिए आ गया इस बसन्त योद्धा के वाण आम के बौर है और उनमें घूमती हुयी भ्रमर पक्ति ही धनुष की डोरी है। प्रिये, यह बसन्त ऋतुराज है। यहाँ सब सुन्दर ही सुन्दर है। तरू कुसुमों से लदे हैं। जलाशय कमल पुष्पों से सुशोभित हैं, ललनाएँ कामातुर हैं, पवन सुगन्धित है। सुबह से शाम तक सारा दिन रमणीय लगता है। प्रिये, बसन्त में वसुन्धरा नई बहू की तरह प्रतीत होती है। इस समय धरती अंगारे की तरह लाल-लाल पलाश के कुसुमों से छायी है। उसे देखकर लगता है कि वह हैं। कोई नव वधू लाल चूनर ओढ़ आयी है! इस तरह हम देखते है कि प्रस्तुत गीतिकाव्य में कवि ने प्रत्येक ऋतु के सौन्दर्य का चित्रण करते हुए प्रकृति के रंगीन चित्र प्रस्तुत किये हैं। यहाँ हमने विस्तार भय से प्रत्येक ऋतुओं का कुछ ही चित्र चित्रित किये है। ऋतुसंहार को वस्तुतः प्रकृति वर्णन बहुत ही रमणीय और हृदयावर्धक है। इसमें कथानक तक की अल्पता किन्तु चित्रण की बहुलता है।

2.png2a.pngकालिदास ने कुमारसम्भव में भी वसंत का उल्लेख करते हुए लिखा- पार्वती ने वसंत के फूलों से अपने आप को अलंकृत किया है। उसके अशोक ने पद्मराग मणि को धता बता दी है, कर्णिकार ने स्वर्ण की द्युति को खींच लिया है तथा सिंधुवार के पुष्प ही मुक्तामाला बन गये हैं-

अशोकनिर्भर्त्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णिकारम्।

मुक्ताकलापीकृतसिन्दुवारं वसंतपुष्पाभरणं वहंती॥

वसंत आता नहींले आया जाता है…जो चाहे- जब चाहे अपने पर ले आ सकता है

कालिदास से लेकर महाप्राण निराला तक. टैगोर से लेकर शैली तक. सब वसंत के दीवाने…! तभी तो कालिदास ने इसे ‘वसंतयोद्धा’ कहा है –

वसंतयोद्धा समुपागतः प्रिये…

वसन्त रूपी वीर आ गया । बौरे हुए आम के अंकुर इसके. बाण हैं, भरी की पंक्ति ही इसके घनुष का रोड़ा है और यह कामुक जनों के मन की बेधन के लिए तैयार है।) इस पद में कवि ने वसन्त की उपमा वीर से की है ।

वसंत का यह ‘योद्धा’ हर्ष और नवोत्कर्ष लाता है. दैहिक उमंगों और प्रकृति के बीच एक अजीब सा साम्य बैठ जाता है. निराला के यहां भी और कालिदास के यहां भी…

सखिवसंत आया…
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया…‘ – निराला

कालिदास के काव्य में भी वसंत जिसे छू जाए, वही सुगंध से भर उठता है – क्या फूल, क्या लताएं, क्या हवा और क्या हृदय – सभी वसंत के प्रहार से विकल हो उठते हैं…

द्रुमा: सपुष्पा: सलिलं स्पद्मं
स्त्रियः सकामः पवनः सुगंधि:,
सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या:
सर्वमम् प्रियम् चारुतरम् वसंते…

‘पवनः सुगंधि:’ कालिदास के यहां विकलता का उत्स है. वह चंचल भी कम नहीं. आम के पेड़ों को हिलाकर भाग जाती है…

‘आकम्पयन कुसुमिता: सहकारशाखा’… कोयल की कूक को सभी दिशाओं में फैला देती है… ‘विस्तारयन परभ्रतस्य वचांसि दिक्षु…’ कोई भी तो ऐसा नहीं, जिसके हृदय को वसंत की यह हवा विचिलित न कर देती हो…! ‘वायुर्विवाति हृदयानि हरंन्नराणाम, नीहारपानविगमात्सुभगो वसंते…’

यह ‘वसंती हवा’ चली ही आ रही है. आज के जन-कवि तक पहुंचते-पहुंचते भी न इसका रूप बदला है, न चंचलता. हां, कालिदास का अपना युग था. राजाओं, सामंतों और कुलीन वर्गों की रुचियां शेष समाज पर भारी थीं. इतिहास और काव्य लिखने वाले राज्याश्रित होते थे. राजाओं और कुलीनों का गुणगान उनका युगीन-बोध था और एक यथार्थ भी, लेकिन ऋतुराज ने अपने प्रभाव में भेदभाव नहीं किया…

शायद इसलिए आज के कवि को शायद इसीलिए वसंत उतना ही पंसद है-

हवा हूंहवा हूंमैं वसंती हवा हूं…
वही हांवहीजो युगों से गगन को,
बिना कष्ट-श्रम के संभाले हुए हूं…
वही हांवहीजो सभी प्राणियों को,
पिला प्रेम-आसव जिलाये हुए हूं…‘- केदारनाथ अग्रवाल

जैसे कालिदास के युग की वासंतिक हवा आम के बौर हिला धमाचौकड़ी मचाती थी. नटखट और शैतान बच्चे की तरह. ठीक उसी तरह वह आज के कवि के यहां भी आम और महुआ के पेड़ों पर चढ़कर थपाथप मचाती है – कितना अदभुत साम्य है…!

चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया,
गिरी धम्म से फिरचढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोराकिया कान में कू‘,
उतर के भगी मैंहरे खेत पहुंची,
वहां गेहुओं में लहर खूब मारी,
पहर दो पहर क्याअनेकों पहर तक,
इसी में रही मैं…
बसंती हवा‘ – केदारनाथ अग्रवाल

वसंत, जो प्रकृति में, पेड़-पौधों पर, और कभी-कभी हृदय में आ धमकता है, क्या इस धरा पर सभी के हृदयों को समान रूप से आनंदित ही करता है? क्या वसंत उद्विग्न नहीं करता! क्या वसंत कालिदास के युग के दरिद्र को भी उसी तरह रुचिकर लगता रहा होगा, जैसा उस युग के भद्र-पुरुषों और कुलीनों को लगता होगा! इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो मिलता नहीं। शायद मिले भी नहीं. संभव है, इस तरह का कोई समूह-बोध रहा ही न हो, लेकिन वसंत ने लोगों को अलग-अलग तो स्पर्श किया ही है. कुछ ने उसे अभिव्यक्तिमय कर दिया तो कोई उसे मौन भोगकर शांत बना रहा. जिसे अपने प्रिय का स्नेह मिले, वह वसंत में भला क्यों खुश न होता!

सरस्वती पूजन एवं ज्ञान का महापर्व है बसंत

वसंत ऋतु के आगमन का समाचार और विद्या की देवी सरस्वती के जन्मदिन की खुशियों को लेकर आज बसंत पंचमी का त्यौहार आया है. प्रकृति और विद्या के प्रति अपने समर्पण को दर्शाने का यह सबसे बेहतरीन मौका है. ठंडी के बाद मौसम अपने सबसे रंगीन रुप में करवट लेता है और पेड़ों पर निकली नई कोपलें इस शुभ-संकेत देती हैं. आज के दिन पितृ तर्पण और कामदेव की पूजा का भी विधान है. बसंत पंचमी को श्री पंचमी तथा ज्ञान पंचमी भी कहते हैं.

बसंत पंचमी मुख्यत: मां सरस्वती के प्रकट होने के उपक्ष्य में मनाया जाता है. धार्मिक ग्रंथों में ऐसी मान्यता है कि इसी दिन शब्दों की शक्ति मनुष्य की झोली में आई थी. हिंदू धर्म में देवी शक्ति के जो तीन रूप हैं -काली, लक्ष्मी और सरस्वती, इनमें से सरस्वती वाणी और अभिव्यक्ति की अधिष्ठात्री हैं. सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्माजी ने मनुष्य योनि की रचना की. पर अपने प्रारंभिक अवस्था में मनुष्य मूक था और धरती बिलकुल शांत थी. ब्रह्माजी ने जब धरती को मूक और नीरस देखा तो अपने कमंडल से जल लेकर छिटका दिया., जिससे एक अद्भुत शक्ति के रूप में चतुर्भुजी सुंदर स्त्री प्रकट हुई. जिनके एक हाथ में वीणा एवं दूसरा हाथ वर मुद्रा में था. इस जल से हाथ में वीणा धारण किए जो शक्ति प्रगट हुई, वह सरस्वती कहलाई. उनके वीणा का तार छेड़ते ही तीनों लोकों में कंपन हो गया (यानी ऊर्जा का संचार आरंभ हुआ) और सबको शब्द और वाणी मिल गई.

ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार वाग्देवी सरस्वती ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्वनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है। बसंत पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। अतः वागीश्वरी जयंती व श्रीपंचमी नाम से भी यह तिथि प्रसिद्ध है। ऋग्वेद के (10/125 सूक्त) में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। माँ सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं। जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है, वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। बहुत लोग अपना ईष्ट माँ सरस्वती को मानकर उनकी पूजा-आराधना करते हैं। जिन पर सरस्वती की कृपा होती है, वे ज्ञानी और विद्या के धनी होते हैं। बसंत पंचमी का दिन सरस्वती जी की साधना को ही अर्पित है। शास्त्रों में भगवती सरस्वती की आराधना व्यक्तिगत रूप में करने का विधान है, किंतु आजकल सार्वजनिक पूजा-पाण्डालों में देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर पूजा करने का विधान चल निकला है। यह ज्ञान का त्योहार है, फलतः इस दिन प्रायः शिक्षण संस्थानों व विद्यालयों में अवकाश होता है। विद्यार्थी पूजा स्थान को सजाने-संवारने का प्रबन्ध करते हैं। महोत्सव के कुछ सप्ताह पूर्व ही, विद्यालय विभिन्न प्रकार के वार्षिक समारोह मनाना प्रारंभ कर देते हैं। संगीत, वाद- विवाद, खेल- कूद प्रतियोगिताएँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन ही विजेयताओं को पुरस्कार बांटे जाते हैं। माता-पिता तथा समुदाय के अन्य लोग भी बच्चों को उत्साहित करने इन समारोहों में आते हैं। समारोह का आरम्भ और समापन सरस्वती वन्दना से होता है। प्रार्थना के भाव हैं-

ओ माँ सरस्वती ! मेरे मस्तिष्क से अंधेरे (अज्ञान) को हटा दो तथा मुझे शाश्वत ज्ञान का आशीर्वाद दो!

सरस्वती का जैसा शुभ श्वेत, धवल रूप वेदों में वर्णित किया गया है, वह इस प्रकार है-

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता 

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की है और जो श्वेत वस्त्र धारण करती है, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली सरस्वती हमारी रक्षा करें ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं

वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।

हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌

वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥

शुक्लवर्ण वाली,संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अंधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूं ॥2॥

श्रीकृष्ण ने की प्रथम पूजा : देवी सरस्वती की पूजा करने के पीछे भी पौराणिक कथा है। इनकी सबसे पहले पूजा श्रीकृष्ण और ब्रह्माजी ने ही की है। देवी सरस्वती ने जब श्रीकृष्ण को देखा तो उनके रूप पर मोहित हो गईं और पति के रूप में पाने की इच्छा करने लगीं। भगवान कृष्ण को इस बात का पता चलने पर उन्होंने कहा कि वे तो राधा के प्रति समर्पित हैं। परंतु सरस्वती को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने वरदान दिया कि प्रत्येक विद्या की इच्छा रखनेवाला माघ मास की शुक्ल पंचमी को तुम्हारा पूजन करेगा। यह वरदान देने के बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने पहले देवी की पूजा की। सृष्टि निर्माण के लिए मूल प्रकृति के पाँच रूपों में से सरस्वती एक है, जो वाणी, बुद्घि, विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी है। बसंत पंचमी का अवसर इस देवी को पूजने के लिए पूरे वर्ष में सबसे उपयुक्त है क्योंकि इस काल में धरती जो रूप धारण करती है, वह सुंदरतम होता है।

नवीन कार्यों के लिए शुभ है बसंत ऋतु- बसंत को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ ऋतु माना गया है। मुख्यतः विद्यारंभ, नवीन विद्या प्राप्ति एवं गृह प्रवेश के लिए बसंत पंचमी को पुराणों में भी अत्यंत श्रेयस्कर माना गया है। बसंत पंचमी को अत्यंत शुभ मुहूर्त मानने के पीछे अनेक कारण हैं। यह पर्व अधिकतर माघ मास में ही पड़ता है। माघ मास का भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस माह में पवित्र तीर्थों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। दूसरे इस समय सूर्यदेव भी उत्तरायण होते हैं। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवताओं का एक अहोरात्र (दिन-रात) मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, अर्थात उत्तरायण देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन रात्रि कही जाती है। सूर्य की क्रांति 22 दिसम्बर को अधिकतम हो जाती है और यहीं से सूर्य उत्तरायण शनि हो जाते हैं। 14 जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं और अगले 6 माह तक उत्तरायण रहते हैं। सूर्य का मकर से मिथुन राशियों के बीच भ्रमण उत्तरायण कहलाता है। देवताओं का दिन माघ के महीने में मकर संक्रांति से प्रारंभ होकर आषाढ़ मास तक चलता है। तत्पश्चात आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास शुक्ल पक्ष एकादशी तक का समय भगवान विष्णु का निद्रा काल अथवा शयन काल माना जाता है। इस समय सूर्यदेव कर्क से धनु राशियों के बीच भ्रमण करते हैं, जिसे सूर्य का दक्षिणायन काल भी कहते हैं। सामान्यतः इस काल में शुभ कार्यों को वर्जित बताया गया है। चूंकि बसंत पंचमी का पर्व इतने शुभ समय में पड़ता है, अतः इस पर्व का स्वतः ही आध्यात्मिक, धार्मिक, वैदिक आदि सभी दृष्टियों से अति विशिष्ट महत्व परिलक्षित होता है।

वसंत को कहते हैं ऋतुओं का राजा- मौसम प्रकृति के बदलाव का अहसास दिलाता है। हर बदलती हुई ऋतु अपने साथ एक संदेश लेकर आती है। भारत की प्रकृति के अनुसार हमारे यहां छ: ऋतुएं प्रमुख रूप से मानी गई है। हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ऋतु। इनमें वसंत को सबका राजा कहा गया है।

वसंत को ऋतुओं को राजा कहने के पीछे कई कारण हैं जैसे- फसल तैयार रहने से उल्लास और खुशी के त्यौहार, मंगल कार्य, विवाह , सुहाना मौसम, आम की मोहनी खुशबू, कोयल की कूक, शीतल मन्द सुरभित हवा, खिलते फूल, मतवाला माहौल, सुहानी शाम, फागुन के मदमस्त करने वाले गीत सब मिलकर अनुकूल समां बाधते है। यही कारण है कि वसंत को ऋतुराज की संज्ञा दी गई है। वसंत की उत्पत्ति के संबंध में धर्मग्रंथों में एक कथा भी है जो इस प्रकार है-

अंधकासुर नाम के राक्षस का वध सिर्फ भगवान शंकर के पुत्र से ही संभव था। तो शिवपुत्र कैसे पैदा हो? इसके लिए शिवजी को कौन तैयार करे? तब कामदेव के कहने पर ब्रह्माजी की योजना के अनुसार वसंत को उत्पन्न किया गया था। कालिका पुराण में वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए इसे सुदर्शन, अति आकर्षक, सन्तुलित शरीर वाला, आकर्षक नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम की मंजरियों को हाथ में पकड़े रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला आदि सारे ऐसे गुणों से भरपूर बताया है।

बसंत पंचमी का दिन अनेक साहित्यकारों तथा महापुरुषों से भी जुड़ा है- बसंत पंचमी वाले दिन वीर हकीकत राय जी का वध इसलिए कर दिया गया था क्योंकि इस वीर बालक ने अपना धर्म त्यागने से इनकार कर दिया था। हिंदी के महान कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का जन्मदिवस भी बसंत  पंचमी वाले दिन ही मानाया जाता है। हिंदी के महान कवि निराला जी ने भी सरस्वती रूप में भारत माता की वंदना कुछ यों की है- 

भारति जय-विजय करे, कनक-शस्य-कमल धरे,
लंका पदतल-शतदल, गर्जितोमिं सागर-जल,
धोता शुचि चरण युगल, स्तव कर बहु अर्थ भरे।

मां सरस्वती के जन्म बसंत  पंचमी पर्व व वसंत  ऋतु के महत्व को रवींद्रनाथ टैगोर ने कुछ यों वर्णन किया है :

आओ आओ कहे वसंत  धरती पर, लाओ कुछ गान प्रेमतान।
लाओ नवयौवन की उमंग नवप्राण, उत्फुल्ल नयी कामनाएं घरती पर।

वसंत ऋतु में सर्दी की कंपकंपी कुछ कम होने लगती है। कहावत है ‘आया वसंत, पाला उड़ंत।’ कवि व शिक्षक डॉ. बालकिशन शर्मा ने वसंत  का कुछ यों यशोगान किया है :

फाल्गुण में फिर मस्ती जागी, कण-कण धरती का इतराया,
वसंत  संग ले, कामदेव को, नव-शृंगार सजाने आया॥
पिक  गाती, मैना मदमाती, कुसुमित उपवन, मस्त सुगंध,
पुन: धरा संगीत-भरी, जीवन के टूटे सब बंध॥

धर्म और इतिहास दोनों से जुड़ी है वसंत ऋतु- वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर बसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजाकर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं।

कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए बसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।

इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है।

सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। बसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है। मोरारी बापू की प्रेरणा से वहां 10 से 12 फरवरी तक शबरी कुंभ का आयोजन हो रहा है।

बसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध ही है। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।

चार बांस चौबीस गजअंगुल अष्ट प्रमाण

ता ऊपर सुल्तान हैमत चूको चौहान।।

पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंद्रबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। (1192 ई) यह घटना भी बसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।

बसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामतः उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।

कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना बसंत पंचमी (23.2.1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती है। हकीकत लाहौर का निवासी था। अतः पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।

बसंत पंचमी हमें गुरू रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में बसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया।

गुरू रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अतः युद्ध का पासा पलट गया।

इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

बसंत पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला‘ का जन्मदिवस (28.02.1899) भी है। निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। इस कारण लोग उन्हंे ‘महाप्राण‘ कहते थे। एक बार नेहरूजी ने शासन की ओर से कुछ सहयोग का प्रबंध किया, पर वह राशि उन्होंने महादेवी वर्मा को भिजवाई। उन्हें भय था कि यदि वह राशि निराला जी को मिली, तो वे उसे भी निर्धनों में बांट देंगे। जहां एक ओर वसंत ऋतु हमारे मन में उल्लास का संचार करती है, वहीं दूसरी ओर यह हमें उन वीरों का भी स्मरण कराती है, जिन्होंने देश और धर्म के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। आइये, इन सबकी स्मृति में नमन करते हुए हम भी वसंत के उत्साह में सम्मिलित हों।

“वैलंटाइंस डे” यानी हमारा “मदनोत्सव”-  14 फरवरी – वेलेंटाइन डे, प्यार करने वालों के लिए सबसे बड़ा दिन जिसे संत वेलेंटाइन की याद में मनाया जाता है। लेकिन इन प्यार के परिंदों को शायद नहीं पता भारत में ”वेलेंटाइन डे” तो भारतवासी हजारों सालों से मना रहे हैं।बसंत पंचमी, वसंतोत्सव, मदनोत्सव… इसकी प्रक्रिया रति और कामदेव यानी क्यूपिड/ वीनस के श्रृंगाररस से भरी है। उस वैलंटाइन के आगाज में हमारे देश में बसंत पंचमी के बाद पूरे दो महीने रहता है, जो असल में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही पर्व है। होली का उत्सव इसका चरमबिन्दु है, जब रस के रसिया का एकाकार हो जाता है।

हमारा वसंतोत्सव या कामदेव और रति के प्यार का उत्सव वैलंटाइन डे भी एक पाश्चात्य देशों से चला पर्व है, जिसकी शुरुआत तीसरी शताब्दी के दरम्यान हुई। जब इटली में रोमन शासक क्लाडियस द्वितीय अपनी सेना के युवा सैनिकों के लिए बहुत ही कठोर अनुशासन का पालन करवाता था। उसके शासन में प्रत्येक युवा को 20 से 30 साल की आयु के दौरान अनिवार्य रूप से सेना में भर्ती होना पड़ता। इस दौरान उनको अपने प्रियजनों सहित पत्नी/ प्रेमिका से मिलने तक की सख्त पाबन्दी थी। वक्त गुजरने के साथ इस पाबंदी का विरोध होने लगा और रोमन चर्च पादरी सेन्ट वैलंटाइन ने 14 फरवरी के इस परम्परा का विरोध करके चर्च में ऐसे जोडों का विवाह करवाना आरंभ कर दिया। उसके बाद सभी सैनिकों और प्रेमी जोड़ों ने इस परम्परा का स्वागत किया और तब से हर साल की 14 फरवरी वैलंटाइंस डे के नाम से विख्यात हो गई और धीरे-धीरे यूरोप से एशिया और दुनिया के अन्य देशों में भी यह दिन प्रेमी दिवस के रूप में प्रचलित हो गया। भारत में इसे पहुंचने में लगभग 1700 साल लगे और अब सभी महानगरों के प्रेमी युगल इस दिन एक-दूसरे को कार्ड उपहार आदि देकर वैलंटाइंस डे मनाते हैं। बाजारों में 15 दिन पहले से सस्ते और मंहगे गिफ्ट सजे रहते हैं और धड़ल्ले से युवा प्रेमी एक-दूसरे के लिए प्रेम का इजहार करने में आगे रहते हैं। यहां पर यह भी निवेदन है कि नकली और असली युवा रस्म आज पूरा बाजार का रूप ले चुका है। पश्चिमी देशों का तो हम नहीं जानते, लेकिन भारतीय परिवेश में वैलंटाइंस डे का लगभग 50 हजार करोड़ के गिफ्ट आइटम्स का बजट है, जो प्यार के देवताओं को अर्पित होता है।

यही परिष्कृत मदनोत्सव का अधिष्ठाता कामदेव को हिंदू शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वह विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मन्मथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधन्वा आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव, हिंदू देवी श्रीलक्ष्मी के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का अवतार हैं। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण को भी माना जाता है। जिन्होंने रति के रूप में 16 हजार पत्नियों से महारास रचाया था और व्रजमंडल की सभी गोपियां उनपर न्यौछावर थीं।

देशभर में बसंत पंचमी का त्योहर अलग-अलग अंदाज में कैसे मनाया जाता है-

उत्तराखंड- उत्तराखंड की खासियत है, वहां एक के बाद एक त्योहार सालभर मनाए जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन यहां के मंदिर बेहद खूबसूरत ढंग से सजाए जाते हैं। बसंत पंचमी मनाने का अर्थ यहां वसंत तु का स्वागत करना है। यहां धरती मां की पूजा भी की जाती है। जौ, मक्का, गेहूं के बाले घर के दरवाजों, खिड़कियों पर व मंदिर में लगाते हैं और दीए जलाए जाते हैं।

हरियाणा- हरियाणा में पतंग उड़ाकर बसंत पंचमी मनाई जाती है। लहलहाते खेतों की पूजा भी की जाती है।

पश्चिमी बंगाल- बसंत पंचमी को बंगाल में पूरी विधि-विधान से देवी सरस्वती की पूजा करके मनाया जाता है। बंगाल में आज भी अधिकतर बच्चों को इस दिन ही स्कूल में दाखिला दिलाया जाता है। बसंत पंचमी आते ही परीक्षाओं के दिन भी नजदीक आ जाते हैं। इस दिन कॉपी, किताब, कलम आदि की पूजा भी की जाती है। प्राचीनकाल में राजा व शासक इस दिन कवि सम्मेलन आदि कराते थे। पुरस्कार व सम्मान बांटते थे।

पंजाब व उत्तर भारत- पंजाब व उत्तरी भारत में लोग सरसों की फसल के लहलहाते खेत देखकर मग्न हो उठते हैं। पीले फूलों से सजावट की जाती है। पीले फूल एक-दूसरे को भेंट स्वरूप भी दिए जाते हैं। भांगड़ा किया जाता है। ज्यादातर सभी लोग पीले रंग के वस्त्र ही पहनते हैं। मीठे पीले चावल पकाए जाते हैं। कुछ लोग पीले वस्त्र से अपना सिर ढकते हैं, तो कुछ पीला तिलक माथे पर लगाते हैं। केसर हलवा भी बनाया जाता है।

बिहार व उड़ीसा- बिहार व उड़ीसा में इसे सिरा पंचमी कहा जाता है। इस दिन वहां लोग हल की पूजा करते हैं और सर्दी के मौसम के बाद खेती के लिए धरती को तैयार करते हैं।

गुजरात और राजस्थान-  बसंत पंचमी में खास तौर से पतंगों का मेला लगता है। पूरा आकाश अलग-अलग आकार की  रंग-रंगीली पतंगों से भर जाता है। पतंग उड़ाते हुए गाने भी गाए जाते हैं व पतंग उड़ाने की कई प्रतियोगिताएं होती हैं।

आयुर्वेद के अनुसार वसंत ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

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वसंत का असली आनंद जब वन में से गुजरते हैं तब उठाया जा सकता है। रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित वृक्ष….. शीतल एवं मंद-मंद बहती वायु….. प्रकृति मानों, पूरी बहार में होती है। ऐसे में सहज ही प्रभु का स्मरण हो आता है, सहज ही में ध्यानावस्था में पहुँचा जा सकता है। ऐसी सुंदर वसंत ऋतु में आयुर्वेद ने खान-पान में संयम की बात कहकर व्यक्ति एवं समाज की नीरोगता का ध्यान रखा है।

जिस प्रकार पानी अग्नि को बुझा देता है वैसे ही वसंत ऋतु में पिघला हुआ कफ जठराग्नि को मंद कर देता है। इसीलिए इस ऋतु में लाई, भूने हुए चने, ताजी हल्दी, ताजी मूली, अदरक, पुरानी जौ, पुराने गेहूँ की चीजें खाने के लिए कहा गया है। इसके अलावा मूँग बनाकर खाना भी उत्तम है। नागरमोथ अथवा सोंठ डालकर उबाला हुआ पानी पीने से कफ का नाश होता है। देखो, आयुर्वेद विज्ञान की दृष्टि कितनी सूक्ष्म है !

मन को प्रसन्न करें एवं हृदय के लिए हितकारी हों ऐसे आसव, अरिष्ट जैसे कि मध्वारिष्ट, द्राक्षारिष्ट, गन्ने का रस, सिरका आदि पीना इस ऋतु में लाभदायक है।

वसंत में आने वाला होली का त्यौहार पर मुख्य मिठाईयां- गुजिया, गुलाब जामुन, तिल के लड्डू, शकरपारे, कलाकंद बालूशाही, कांजी बड़े

ठंडाई- ठंडाई ऐसा पेय पदार्थ है जो कि होली का मजा दुगुना कर देता हैं। ठंडाई को कई तरह से बनाया जा सकता हैं। इसमें बादाम, पिस्ताह, केसर, गुलाब की पत्तियों और कई मसालों को आराम से मिक्सा किया जा सकता है। ठंडाई में खरबूजे के बीज भी मिलाए जा सकते हैं ये ठंडाई का मजा दुगुना कर देते हैं। ठंडाई को बनाने में विशष बात है कि आप चाहे तो ठंडाई के पाउडर को पहले ही तैयार कर सकते हैं और जब भी ठंडाई बनानी हो तो ठंडे दूध में इसे मिलाकर सर्व किया जा सकता है।

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ज्येष्ठ और आषाढ़ ‘ग्रीष्म ऋतु’ के मास हैं। इसमें सूर्य उत्तरायण की ओर बढ़ता है। ग्रीष्म ऋतु प्राणीमात्र के लिए कष्टकारी अवश्य है, पर तप के बिना सुख-सुविधा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह ऋतु अंग्रेजी कैलेंडर अनुसार giphy (1).gifमई और जून में रहती है।

मादक वसन्त का अन्त होते ही ग्रीष्म की प्रचंडता आरम्भ हो जाती है। वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से सम्बन्धित है। ग्रीष्म ऋतु, भारतवर्ष की छह ऋतओं में से एक ऋतु है, जिसमें वातावरण का तापमान प्रायः उच्च रहता है। दिन बड़े हो जाते हैं रातें छोटी।  शीतल सुंगधित पवन के स्थान पर गरम-गरम लू चलने लगती है। धरती जलने लगती है। नदी-तलाब सूखने लगते हैं। कमल कुसुम मुरझा जाते हैं। दिन बड़े होने लगते हैं। सर्वत्र अग्नि की वर्षा होती-सी प्रतीत होती है। शरद ऋतु का बाल सूर्य ग्रीष्म ऋतु को प्राप्त होते ही भगवान शंकर की क्रोधाग्नि-सी बरसाने लगा है। ज्येष्ठ मास में तो ग्रीष्म की अखंडता और भी प्रखर हो जाती है। छाया भी छाया ढूंढने लगती है।–

बैठी रही अति सघन वन पैठी सदन तन माँह

देखी दुपहरी जेठ की छाँहों चाहती छाँह।।

ग्रीष्म की प्रचंडता का प्रभाव प्राणियों पर पड़े बिना नहीं रहता। शरीर में स्फूर्ति का स्थान आलस्य ले लेता है। तनिक-सा श्रम करते ही शरीर पसीने से सराबोर हो जाता है। कण्ठ सूखने लगता है। अधिक श्रम करने पर बहुत थकान हो जाती है। इस मौसम में यात्रा करना भी दूभर हो जाता है। यह ऋतु प्रकृति के सर्वाधिक उग्र रुप की द्योतक है।

भारत में सामान्यतया 15 मार्च से 15 जून तक ग्रीष्म मानी जाती है। इस समय तक सूर्य भूमध्य रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ता है, जिससे सम्पूर्ण देश में तापमान में वृद्धि होने लगती है। इस समय सूर्य के कर्क रेखा की ओर अग्रसर होने के साथ ही तापमान का अधिकतम बिन्दु भी क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ता जाता है और मई के अन्त में देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग में 48डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क भागों में इस समय चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवाओं को ‘लू’ कहा जाता है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रायः शाम के समय धूल भरी आँधियाँ आती है, जिनके कारण दृश्यता तक कम हो जाती है। धूल की प्रकृति एवं रंग के आधार पर इन्हें काली अथवा पीली आंधियां कहा जाता है। सामुद्रिक प्रभाव के कारण दक्षिण भारत में इन गर्म पवनों तथा आंधियों का अभाव पाया जाता है।

त्योहार- ग्रीष्म माह में अच्छा भोजन और बीच-बीच में व्रत करने का प्रचलन रहता है। इस माह में निर्जला एकादशी, वट सावित्री व्रत, शीतलाष्टमी, देवशयनी एकादशी और गुरु पूर्णिमा आदि त्योहार आते हैं। गुरु पूर्णिमा के बाद से श्रावण मास शुरू होता है और इसी से ऋतु परिवर्तन हो जाता है और वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है।

रीतिकालीन कवियों में सेनापति का ग्रीष्म ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है।–

वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि

ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।

तचति धरनिजग जरत झरनिसीरी

छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥

सेनापति नैकु दुपहरी के ढरतहोत

धमका विषमजो नपात खरकत हैं।

मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों

घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥

रासो काव्य रचनाकार ‘अब्दुल रहमान’ द्वारा लिखी गई सन्देश रासक में षड्ऋतुवर्णन ग्रीष्म से प्रारम्भ होता है…

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ग्रीष्म शब्द ग्रसन से बना है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी के रस को ग्रस लेता है।

भागवत पुराण में ग्रीष्म ऋतु में कृष्ण द्वारा कालिया नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है । भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है।

शतपथ ब्राह्मण में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है।

जैमिनीय ब्राह्मण 2.51 में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है ।

तैत्तिरीय संहिता में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है। तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये है,जैसे :- बसंत ऋतु के दो मास- मधु माधवग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचिवर्षा के नभ और नभस्यशरद के इष ऊर्जहेमन्त के सह सहस्य और शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं।

चरक संहिता में कहा गया हैः …… शिशिर ऋतु उत्तम बलवाली, वसन्त ऋतु मध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। ग्रीष्म ऋतु में गरम जलवायु पित्त एकत्र करती है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन शरीर को प्रभावित करते हैं। इसलिए व्यक्ति को साधारण रूप से भोजन तथा आचार-व्यवहार के साथ प्रकृति और उसके परिवर्तनों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए । तापमान बढ़ने पर पित्त उत्तेजित होता है तथा शरीर में जमा हो जाता है। व्याधियों से बचाव के लिए ऋतु के अनुकूल आहार तथा गतिविधियों का पालन जरूरी है।

होलिकोत्सव में सरसों के चूर्ण से उबटन लगाने की परंपरा है, ताकि ग्रीष्म ऋतु में त्वचा की सुरक्षा रहे। आदिकाल से उत्तर भारत में जहाँ तेज गर्मी होती है, गरम हवाएँ चलती हैं वहाँ पर त्वाचा की लाली के शमन के लिए प्राय: लोग सरसों के बीजों के उबटन का प्रयोग करते हैं।

नवरात्री दुर्गा पूजा वर्ष में दो बार आती है। यह जलवायु प्रधान पर्व है। अतः एक बार यह पर्व ग्रीष्म काल आगमन में राम नवरात्रि चैत्र (अप्रैल मई) के नाम से जाना जाता है। दूसरी बार इसे दुर्गा नवरात्रि अश्विन(सितम्बर-अकतूबर) मास में मनाया जाता है। यह समय शीतकाल के आरम्भ का होता है। यह दोनो समय ऋतु परिवर्तन के है।

प्रकृति-चित्रण में बिहारी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। षट ॠतुओं का उन्होंने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। ग्रीष्म ॠतु का चित्र देखिए –

कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।

जगत तपोतन से कियोदरिघ दाघ निदाघ।।

कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और ऋतुसंहार में ग्रीष्म ऋतु का वर्णन किया है-

अभिज्ञानशाकुन्तलम्- नाटक के प्रारम्भ में ही ग्रीष्म-वर्णन करते हुए लिखा कि वन-वायु के पाटल की सुगंधि से मिलकर सुगंधित हो उठने और छाया में लेटते ही नींद आने लगने और दिवस का अन्त रमणीय होने के द्वारा नाटक की कथा-वस्तु की मोटे तौर पर सूचना दे दी गई है, जो क्रमशः पहले शकुन्तला और दुष्यन्त के मिलन, उसके बाद नींद-प्रभाव से शकुन्तला को भूल जाने और नाटक का अन्त सुखद होने की सूचक है।

ऋतुसंहार में महाकवि कालिदास कहते हैं- प्रथम सर्ग के ग्रीष्म ऋतु के वर्णन में गीतिकार अपनी प्रियतमा को प्यार भरा सम्बोधन कर कहता है। प्रिये देखो, यह घोर गर्मी का मौसम है। इस ऋतु में सूर्य बहुत ही प्रचण्ड हो जाता है, -चन्द्र किरणें सुहानी लगती हैं, जल में स्नान करना भला लगता है। सांयकाल बड़ा रमणीयहो जाता है क्योंकि उस समय सूर्य का ताप नहीं सताता ! काम भावना भी प्रायः शिथिल पड़ जाता है। संभवतः इस सन्दर्भ में युवा कवि की यह सूचना रही हो कि ऋतु राजबसन्त में कामोद्रेक द्विगुणित हो जाता है।

गर्मी की रात में चन्द्र किरणों से रात्रि की कालिमा क्षी हो जाने से चाँदनी राते बहुत ही सुहावनी लगती है। ऐसे ही उष्पकाल में जिन भवनों में जल यन्त्र (फब्बारे) लगे रहते हैं, वे भी अति मनोरम लगते हैं । ठण्डक देने वाले चन्द्रकान्त मणि और सरस चन्दन का सेवन अति सुखकर लगता है। ग्रीष्म की चाँदनी रातों में धवल भवनों की छतों पर सुख से सोई ललनाओं के मुखों की कालि को देखकर चन्द्रमा बहुत ही उत्कण्ठित हो जाता है और रात्रि समाप्ति की वेला में  उनकी सुन्दरता से लजा कर फीका पड़ जाता है।

ग्रीष्म ऋतु में मयूर, सूर्य के आतप से इतने परितप्त हो जाते है कि अपने पंखों की छाया में धूप निवारण के लिए आ छिपे सॉपों को भी नहीं खाते, जबकि यह सर्प उनके भक्ष्य जंगल में फैली हुयी दावाग्नि का भी सरस चित्रण कवि करता है । पर्वत की गुफाओं में हवा का जोर पकड़कर दवानल बढ़ रहा है। सूखे बॉसों में चर-चर की आवाज आ रही है क्योकि जलने से ये शब्द करते है । जो अभभ दूर थी वहीं दावाग्नि सूखे तिनकों में फैलकर बढ़ती ही जाती है । इसी तरह से इधर-उधर घूमने वाले हरेषों को व्याकुल कर देती है। इस तरह से कवि ने प्रथम सर्ग में ग्रीष्म ऋतु का हृदय हारी वर्णन किया है ।

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ज्येष्ठ की गर्मी- ज्येष्ठ हिन्दू पंचांग का तीसरा मास है। ज्येष्ठ या जेठ माह गर्मी का माह है। इस महीने में बहुत गर्मी पडती है। फाल्गुन माह में होली के त्योहार के बाद से ही गर्मियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं। चैत्र और बैशाख माह में अपनी गर्मी दिखाते हुए ज्येष्ठ माह में वह अपने चरम पर होती है। ज्येष्ठ गर्मी का माह है। इस माह जल का महत्त्व बढ जाता है। इस माह जल की पूजा की जाती है और जल को बचाने का प्रयास किया जाता है। प्राचीन समय में ऋषि मुनियों ने पानी से जुड़े दो त्योहारों का विधान इस माह में किया है-

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गंगा दशहरा

ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला एकादशी

इन त्योहारों से ऋषियों ने संदेश दिया कि गंगा नदी का पूजन करें और जल के महत्त्व को समझें। गंगा दशहरे के अगले दिन ही निर्जला एकादशी के व्रत का विधान रखा है जिससे संदेश मिलता है कि वर्ष में एक दिन ऐसा उपवास करें जिसमें जल ना ग्रहण करें और जल का महत्त्व समझें। ईश्वर की पूजा करें। गंगा नदी को ज्येष्ठ भी कहा जाता है क्योंकि गंगा नदी अपने गुणों में अन्य नदियों से ज्येष्ठ(बडी) है। ऐसी मान्यता है कि नर्मदा और यमुना नदी गंगा नदी से बडी और विस्तार में ब्रह्मपुत्र बड़ी है किंतु गुणों, गरिमा और महत्त्व की दृष्टि से गंगा नदी बड़ी है। गंगा की विशेषता बताता है ज्येष्ठ और ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष की दशमी गंगा दशहरा के रूप में गंगा की आराधना का महापर्व है।

निर्जला एकादशी- भीषण गर्मी के बीच तप की पराकाष्टा को दर्शाता है यह व्रत। इसमें दान-पुण्य एवं सेवा भाव का भी बहुत बड़ा महत्व शास्त्रों में बताया गया है।  ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है। अन्य महीनों की एकादशी को फलाहार किया जाता है, परंतु इस एकादशी को फल तो क्या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता। यह एकादशी ग्रीष्म ऋतु में बड़े कष्ट और तपस्या से की जाती है। अतः अन्य एकादशियों से इसका महत्व सर्वोपरि है। इस एकादशी के करने से आयु और आरोग्य की वृद्धि तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुसार अधिक माससहित एक वर्ष की छब्बीसों एकादशियां न की जा सकें तो केवल निर्जला एकादशी का ही व्रत कर लेने से पूरा फल प्राप्त हो जाता है।

वृषस्थे मिथुनस्थेऽर्के शुक्ला ह्येकादशी भवेत्‌

ज्येष्ठे मासि प्रयत्रेन सोपाष्या जलवर्जिता।

नवतपा- नवतपा को ज्येष्ठ महीने के ग्रीष्म ऋतु में तपन की अधिकता का द्योतक माना जाता है। सूर्य के रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने के साथ नवतपा शुरू हो जाता है। शुक्ल पक्ष में आर्द्रा नक्षत्र से लेकर 9 नक्षत्रों में 9 दिनों तक नवतपा रहता है। नवतपा में तपा देने वाली भीषण गर्मी पड़ती है। नवतपा में सूर्यदेव लोगों के पसीने छुड़ा देते हैं। पारा एक दम से 48 डिग्री पर पहुंच जाता है। जबकि न्यूनतम तापमान 32 डिग्री तक रहता है। लेकिन नवतपा के बाद एक अच्छी खबर आती है आर्द्रा के 10 नक्षत्रों तक जिस नक्षत्र में सबसे अधिक गर्मी पड़ती है, आगे चलकर उस नक्षत्र में 15 दिनों तक सूर्य रहते हैं और अच्छी वर्षा होती है।

राग दीपक- ग्रीष्म की जलविहीन शुष्क ऋतु में भी कलाकार की रचनाधर्मिता जागृत रहती है। संगीतकार इस उष्ण वातावरण को राग दीपक के स्वरों में प्रदर्शित करता है तो चित्रकार रंग तथा तूलिका के माध्यम से राग दीपक को चित्र में साकार करता है। भारतीय मान्यताओं के अनुसार राग के गायन के ऋतु निर्धारित है । सही समय पर गाया जाने वाला राग अधिक प्रभावी होता है । राग और उनकी ऋतु इस प्रकार है –

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तानसेन और राग दीपक- परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। ग्रीष्म की तपन के पश्चात आकाश में छाने लगते हैं – श्वेत-श्याम बादलों के समूह तथा संदेश देते हैंजन-जन में प्राणों का संचार करने वाली बर्षा ऋतु के आगमन का। आकाश में छायी श्यामल घटाओं तथा ठंडी-ठंडी बयार के साथ झूमती आती है जन-जन को रससिक्त करतीजीवन दायिनी वर्षा की प्रथम फुहार। वर्षा की सहभागिनी ग्रीष्म की उष्णता आकाश से जल बिंदुओं के रूप में पुन: धरती पर अवतरित होती है किंतु अपने नवीन मनमोहक रूप में। उष्ण वातावरण के कारण घिर आये मेघ तत्पश्चात जीवनदान करती वर्षा का प्रसंग एक किवदंती में प्राप्त होता है जिसके अनुसार बादशाह अकबर ने दरबार में गायक तानसेन से ग्रीष्म ऋतु का राग दीपक‘ सुनने का अनुरोध किया। तानसेन के स्वरों के साथ वातावरण में ऊष्णता व्याप्त होती गयी। सभी दरबारीगण तथा स्वयं तानसेन भी बढ़ती गरमी को सहन नहीं कर पा रहे थे। लगता थाजैसे सूर्य देव स्वयं धरती पर अवतरित होते जा रहे हैं। तभी कहीं दूर से राग मेघ के स्वरों के साथ मेघ को आमंत्रित किया जाने लगा। जल वर्षा के कारण ही गायक तानसेन की जीवन रक्षा हुई। 

आयुर्वेद के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

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वसंत ऋतु की समाप्ति के बाद ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। अप्रैल, मई तथा जून के प्रारंभिक दिनों का समावेश ग्रीष्म ऋतु में होता है। इन दिनों में सूर्य की किरणें अत्यंत उष्ण होती हैं। इनके सम्पर्क से हवा रूक्ष बन जाती है और यह रूक्ष-उष्ण हवा अन्नद्रव्यों को सुखाकर शुष्क बना देती है तथा स्थिर चर सृष्टि में से आर्द्रता, चिकनाई का शोषण करती है। इस अत्यंत रूक्ष बनी हुई वायु के कारण, पैदा होने वाले अन्न-पदार्थों में कटु, तिक्त, कषाय रसों का प्राबल्य बढ़ता है और इनके सेवन से मनुष्यों में दुर्बलता आने लगती है। शरीर में वातदोष का संचय होने लगता है। अगर इन दिनों में वातप्रकोपक आहार-विहार करते रहे तो यही संचित वात ग्रीष्म के बाद आने वाली वर्षा ऋतु में अत्यंत प्रकुपित होकर विविध व्याधियों को आमंत्रण देता है। आयुर्वेद चिकित्सा-शास्त्र के अनुसार ‘चय एव जयेत् दोषं।’ अर्थात् दोष जब शरीर में संचित होने लगते हैं तभी उनका शमन करना चाहिए। अतः इस ऋतु में मधुर, तरल, सुपाच्य, हलके,जलीय, ताजे, स्निग्ध, शीत गुणयुक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। जैसे कम मात्रा में श्रीखंड, घी से बनी मिठाइयाँ, आम, मक्खन, मिश्री आदि खानी चाहिए। इस ऋतु में प्राणियों के शरीर का जलीयांश कम होता है जिससे प्यास ज्यादा लगती है। शरीर में जलीयांश कम होने से पेट की बीमारियाँ, दस्त, उलटी, कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में कम आहार लेकर शीतल जल बार-बार पीना हितकर है।

आहारः ग्रीष्म ऋतु में साठी के पुराने चावलगेहूँदूधमक्खनगुलाब का शरबत, आमपन्ना से शरीर में शीतलतास्फूर्ति तथा शक्ति आती है। सब्जियों में लौकीगिल्कीपरवलनींबूकरेलाकेले के फूलचौलाईहरी ककड़ीहरा धनिया,पुदीना और फलों में द्राक्षतरबूजखरबूजाएक-दो-केलेनारियलमौसमीआमसेबअनारअंगूर का सेवन लाभदायी है। इस ऋतु में तीखे, खट्टे, कसैले एवं कड़वे रसवाले पदार्थ नहीं खाने चाहिए। नमकीन, रूखा, तेज मिर्च-मसालेदार तथा तले हुए पदार्थ, बासी एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थ, दही, अमचूर, आचार, इमली आदि न खायें। गरमी से बचने के लिए बाजारू शीत पेय (कोल्ड ड्रिंक्स), आइस क्रीम, आइसफ्रूट, डिब्बाबंद फलों के रस का सेवन कदापि न करें। इनके सेवन से शरीर में कुछ समय के लिए शीतलता का आभास होता है परंतु ये पदार्थ पित्तवर्धक होने के कारण आंतरिक गर्मी बढ़ाते हैं। इनकी जगह कच्चे आम को भूनकर बनाया गया मीठा पनापानी में नींबू का रस तथा मिश्री मिलाकर बनाया गया शरबतजीरे की शिकंजीठंडाईहरे नारियल का पानीफलों का ताजा रसदूध और चावल की खीरगुलकंद आदि शीत तथा जलीय पदार्थों का सेवन करें। इससे सूर्य की अत्यंत उष्ण किरणों के दुष्प्रभाव से शरीर का रक्षण किया जा सकता है।

 

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श्रावण और भाद्रपद ‘वर्षा ऋतु’ के मास हैं। वर्षा नया जीवन लेकर आती है। मोर के पांव में नृत्य बंध जाता है। संपूर्ण giphy (2).gifश्रावण माह में उपवास रखा जाता है। इस ऋतु के तीज, रक्षाबंधन और कृष्ण जन्माष्टमी सबसे बड़े त्योहार हैं।

 

वर्षा ऋतु आषाढ़, श्रावण तथा भादो मास में मुख्य रूप से होती है। जून माह से शुरू होने वाली वर्षा ऋतु हमें अप्रैल और मई की भीषण गर्मी से राहत दिलाती है। यह मौसम भारतीय किसानों के लिए बेहद ही हितकारी एवं महत्वपूर्ण है।

1 जून के करीब केरल तट और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में मानसून सक्रिय हो जाता है। हमारे देश में वर्षा ऋतु के अमूमन तीन या चार महीने माने गए हैं। दक्षिण में ज्यादा दिनों तक पानी बरसता है यानी वहां वर्षा ऋतु ज्यादा लंबी होती है जबकि जैसे-जैसे हम दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हैं तो वर्षा के दिन कम होते जाते हैं।

वर्षा का महत्व : वर्षा का मानव जीवन में बेहद ही महत्व है क्योंकि पानी के बिना जीवन संभव नहीं है।  वर्षा से फसलों के लिए पानी मिलता है तथा सूखे हुए कुएं, तालाबों तथा नदियों को फिर से भरने का कार्य वर्षा के द्वारा ही किया जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि जल ही जीवन है।  इस मौसम में छोटे-छोटे जीव-जंतु जो गर्मी के मारे जमीन के नीचे छिप जाते हैं, बाहर निकल जाते हैं। मेंढ़क की टर्र-टर्र की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। आकाश में प्राय: बादल छाए रहते हैं। वर्षा ऋतु का आनंद लेने के लिए लोग पिकनिक मनाते हैं। गांवों में सावन के झूलों पर युवतियां झूलती हैं। वर्षा ऋतु में ही रक्षा बंधन, तीज आदि त्योहार आते हैं। इस ऋतु में अनेक बीमारियां भी फैल जाती हैं।

वेदों में वर्षा ऋतु से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं- जैसे पर्जन्य सूक्त ( ऋग्वेद 7/101,102 सूक्त), वृष्टि सूक्त (अथर्ववेद 4/12) एवं प्राणसूक्त (अथर्ववेद 11/4 ) मंडूक सूक्त (ऋग्वेद 7/103 सूक्त) आदि।

पर्जन्य सूक्त मेघ के गरजने, सुखदायक वर्षा होने एवं सृष्टि के फलने-फूलने का सन्देश देता हैं।  जबकि मंडूक सूक्त वर्षा ऋतु में मनुष्यों के कर्तव्यों का प्रतिपादन करता हैं।

ऋग्वेद में वर्षा ऋतु को उत्सव मानकर शस्यश्यामला प्रकृति के साथ अपनी हार्दिक प्रसन्नता की अभिव्यक्ति की गयी है –

ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वर्दन्तः।।

संवत्सरस्य तदहः परि छु यन्मण्डूकाः प्रावृषीण बभूव।।

अर्थात् जिस दिन पहली वर्षा होती हैउस दिन मेढक सरोवरों के पूर्ण रूप से भर जाने की कामना से चारों ओर बोलते हैंइधर-उधर स्थिर होते हैंउसी प्रकार हे ब्राह्मणों ! तुम भी रात्रि के अनन्तर ब्राह्म-मुहूर्त में जिस समय सौम्य-वृद्धि होती हैउस समय वेदध्वनि से परमेश्वर के यज्ञ का वर्णन करते हुए वर्षा-ऋतु के आगमन को उत्सव की तरह मनाओ।

वर्षा ऋतु के साथ श्रावणी पर्व का आगमन होता है- इस पर्व में मनुष्यों को वेद का पाठ करने का विधान हैं।  इस पर्व में वेदाध्ययन को वर्षा आरम्भ होने पर मौन पड़े मेंढक जैसे प्रसन्न होकर ध्वनि करते है। वेद कहते है कि हे वेदपाठी ब्राह्मण वर्षा आरम्भ होने पर वैसे ही अपना मौन व्रत तोड़कर वेदों  सम्भाषण आरम्भ करे। मंडूक सूक्त के प्रथम मन्त्र का सन्देश ईश्वर के महत्त्व गायन से वर्षा का स्वागत करने का सन्देश हैं। इस सूक्त के अगले चार मन्त्रों में सन्देश दिया गया है कि गर्मी के मारे सुखें हुए मंडूक वर्धा होने पर तेज ध्वनि निकालते हुए एक दूसरे के समीप जैसे जाते हैं वैसे ही हे मनुष्यों तुम भी अपने परिवार के सभी सदस्यों, सम्बन्धियों, मित्रों, अनुचरों आदि के साथ संग होकर वेदों का पाठ करों। जब सभी समान मन्त्रों से एक ही पाठ करेंगे तो सभी की ध्वनि एक से होगी। सभी के विचार एक से होंगे। सभी के आचरण भी श्रेष्ठ बनेंगे।

वर्षा काल के इस समय को चातुर्मास‘  भी कहा जाता है क्‍योंकि वर्षा ऋतु चार माह का होता है। जैन प्रथा में आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का समय ‘चातुर्मास‘ कहलाता है जबकी वैदिक प्रथा में आषाढ़ से आसोज तक का समय ‘चातुर्मास‘ कहलाता है। ‘चातुर्मास‘ का समय आत्म-वैभव को पाने और अध्यात्म की फसल उगाने की दृष्टि से  अच्‍छा माना जाता है। इसी कारण से अविरल पदयात्रा करने वाले साधु-संत भी इस समय एक जगह स्थिर प्रवास करते हैं और उन्‍हीं की प्रेरणा से धर्म जागरण में वृद्धि होती है।

मनुस्मृति और मत्स्य पुराण में कहा गया है कि साधु-संन्यासी जन गरमी और सर्दी की  ऋतुओं के आठ महीनों में अविरल पदयात्रा करते रहेंलेकिन सब प्राणियों की दया हेतु वर्षा ऋतु में एकत्र निवास करें।

प्राचीन समय में चातुर्मास की स्थापना के चार उद्देश्य माने जाते थे -आत्म विकास, धर्म का प्रचार, विशिष्ट साधना और क्षेत्रीय स्थिति। साधना का आदि बिंदु है जिज्ञासा। नई जिज्ञासा के बिना आत्मज्ञान में एक प्रकार का ठहराव आ जाता है। वह समाज के लिए शुभ नहीं, कष्टकर हो जाता है। जैसे वर्षों तक एक ही कक्षा में रहने वाला विद्यार्थी एबनॉर्मल माना जाता है। वैसे ही, वर्षों तक धर्म की उपासना करने वाला श्रावक समाज यदि धार्मिकता की पहली-दूसरी कक्षा को भी पार न कर सके, तो उसकी धार्मिकता पर प्रश्न खड़े होते हैं। जहां कुछ व्यक्ति सामूहिक रूप से ध्यान, साधना, तपोयोग या मंत्र अनुष्ठान करना चाहें, उन्हें चातुर्मास का उपहार प्राप्त हो सकता है। जिस क्षेत्र की स्थिति विषम हो, जनता अशांति, अराजकता या अत्याचारी शासक की क्रूरता की शिकार हो, उसके समाधान के लिए भी समता के प्रतीक साधु-साध्वियों का चातुर्मास करवाया जाता था। क्योंकि संत वस्तुतः वही होता है, जो औरों को शांति प्रदान करे।

रामायण के किष्किंधाकाण्ड में वर्षा ऋतु का वर्णन है-

कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥

बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥4॥

भावार्थ : श्री राम छोटे भाई लक्ष्मणजी से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं। वर्षाकाल में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं॥4॥

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥

कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥4॥

भावार्थ : भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं।) जैसे विद्वान्‌ लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं॥4॥

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥

ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥5॥

भावार्थ : चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता॥5॥

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥

भावार्थ : चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है॥1॥

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥

सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥

भावार्थ : जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है॥4॥

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।

बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥

भावार्थ : बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान्‌ नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥2॥

लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।

गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥13

भावार्थ : (श्री रामजी कहने लगे-) हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥13॥

तुलसीदास रामचरितमानस में एक चौपाई मंडूक सूक्त से सम्बन्ध में आती है-

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥ -किष्किन्धा काण्ड

अर्थात वर्षा का वर्णन में श्रीराम जी लक्ष्मण को कहते हैं- वर्षा में मेंढको की ध्वनी इस तरह सुनाई देती है जैसे बटुकसमुदाय ( ब्रह्मचारीगण) वेद पढ़ रहे हों। पेड़ों पर नए पत्ते निकल आये है। एक साधक योगी के मन को यह विवेक देने वाला हैं।

शतपथ ब्राह्मण में कथित है कि प्रजापति ने आदित्य से चक्षु को तत्पश्चात् चक्षु द्वारा वर्षा को बनाया। वर्षा की व्युत्पत्ति देते हुए ‘निरुक्त’ में वर्णित है कि इनमें बादल बरसता है, इसीलिए वर्षा नाम पड़ा। वस्तुतः वर्षा ऋतु नभ और नभस्य नामक मासों पर आधारित मानी गई है और इन मासों का स्वभाव है बरसना।

तैत्तिरीय संहिता (१.१.१४) के भट्ट्टभास्कर भाष्य तथा वाजसनेयी संहिता (७.३०) के उवट भाष्य में कथित है कि

“नभ – नह्यति बध्नाति जन्तूनिति नभः।

नभस्य – न भातीति नभः।

अथवा

“नभ और नभस्य – नह्यन्न सूर्यो भाति मेघप्रचुरत्वात् तस्मान्नभो नभस्यश्च।

अर्थात् जिस काल में मेघों की प्रचुरता होती हैवह काल वर्षा ऋतु के नाम से जाना जाता है। वस्तुत: शतपथ ब्राह्मण में वर्षा ऋतु के विषय में सबसे अधिक वर्णन मिलता है। यहाँ वाक्यों में उसकी वास्तविक

स्थितिउसकी रूप-रेखा तथा स्थिति आदि पर विस्तार से चर्चा की गई है।

सर्वप्रथम वर्षा ऋतु की स्थिति को अन्तरिक्ष में बताया गया है। तत्पश्चात् उसके स्वरूप का वर्णन करते हुए जल को इसका वास्तविक स्वरूप कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार वसन्त ऋतु में चारों ओर सुगन्ध का, ग्रीष्म ऋतु में उष्णता का एहसास होता है, उसी प्रकार वर्षा ऋतु का स्वरूप जल से ही बनता है। इस विषय में कहा गया है कि वर्षा ऋतु में जो वर्षा आती है, वह अग्नि से बनती है, अर्थात् अग्नि के प्रज्वलित होने से भाप बनती है, जिससे काले-काले मेघ बनते हैं और इस प्रकार वर्षा होती है।

इस प्रकार यहाँ विज्ञान के वाष्पीकरण नामक विख्यात नियम की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में वर्षा ऋतु की रूप-रेखा इस प्रकार दी गई है – वर्षा अग्नि है, संवत्स, समिधा, बिजली लौ, बादल धुआँ, चमक अंगारा, गरज चिंगारियाँ है।

आज भी जब-जब वर्षा- काल आता है तो यह स्थिति सामान्यतया देखने को मिलती है-

बादल, गरज, चमक, बिजली, बारिश।  जिस ऋतु में सूर्य की किरणें आर्द्र वायु को लेकर ऊष्मा के बल पर वाष्प बनाकर बरसना प्रारम्भ कर देती हैं, उस काल को वर्षा काल कहा जाता है। शतपथ के वाक्यों में वर्षा के जल का माहात्म्य भी देखने को मिलता है। यहाँ कथित है कि जल की स्वाभाविक विशेषता यह है कि वह शान्ति पहुँचाता है।

अतः वर्षा के जल को पवित्र, स्वच्छ, शुद्ध एवं वज्र की तरह ऋतु-विज्ञान । शतपथ ब्राह्मण के सन्दर्भ में कठोर एवं तेज समझना चाहिए, जो हमारी बुराई को काट भी देता है और धो भी देता है।

पाश्चात्य विद्वान् जे. गोंडा ने भी अपने ग्रन्थ ‘मन्त्र इंटरप्रिटेशन इन द शतपथ ब्राह्मण’ में वर्षा के जल के महत्त्व का कथन किया है। इस प्रकार यहाँ वर्षा के जल को धर्मानुकूल कहकर उसके महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है।

ऋतुसंहार के द्वितीय सर्ग में कवि वर्षा ऋतु का वर्णन करता है- कवि कहता है कि वर्षा का मौसम कामी जनों को प्रिय होता है। वर्षा का मौसम एक राजसी ठाठ-आट से आता प्रतीत होता है । राजा का वाहन यदि हाथी होता है तो वर्षाकाल का वाहन मेघ है। राजा के आगे-आगे ध्वज पताकायें फहराती हैं तो यहाँ बिजली की पताकाएं फहराती है। राजा की यात्रा में नगाड़े बजते हैं तो यहाँ वज्रपात के शब्द नगाड़े का काम करते हैं। वर्षा ऋतु का पवन जो कदम्ब, सर्ज, अर्जुन, केतकी वृक्षों को झकझोरता है। वन उनके पुष्पों के सौरभ से सुगन्धित है! मेघों के सीकरों से शीतल है । वह किसे सुहावना नहीं लगता। अन्त में कवि कहता है वर्षा काल अनेक गुणों से चिताकर्षक होता है। अंगनाओं में चित का हरण करने वाला है। वृक्ष लता वल्लरी, वृक्ष आदि का मित्र है और प्रेमियों का जैसे प्राण ही है।

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कालिदास ने मेघदूत‘ में बादलों और वर्षा ऋतु का जितना खूबसूरत वर्णन किया है वैसा शायद ही किसी ने किया हो-  कालीदास ने मेघ का यक्ष के शब्दों में बखूबी वर्णन किया है. यक्ष बादलों से कहता है, हे मेघ जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो प्रवासी पथिकों की स्त्रियां मुंह पर लटकते हुए घुंघराले बालों को ऊपर फेंककर इस आशा से तुम्‍हारी ओर टकटकी लगाएंगी कि अब प्रियतम अवश्‍य आते होंगे. तुम्‍हारे घुमड़ने पर कौन-सा जन विरह में व्‍याकुल अपनी पत्‍नी के प्रति उदासीन रह सकता हैयदि उसका जीवन मेरी तरह पराधीन नहीं है?..”

वहीं बारिश होने के बाद क्या-क्या होगा इसका बहुत खूबसूरत वर्णन किया गया है. बरसात होने पर क्या होगा इसके बारे में यक्ष बताता है, ”पुष्पित कदम्ब को भ्रमर मस्त होकर देख रहे होंगेपहला जल पाकर मुकुलित कन्दली को हरिण खा रहे होंगे और गज प्रथम वर्षाजल के कारण पृथिवी से निकलने वाली गन्ध सूंघ रहे होंगे-इस प्रकार भिन्न-भिन्न यिाओं को देखकर मेघ के गमन मार्ग का स्वत:अनुमान हो जाता है. प्रकृति से मनुष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है. यही कारण है कि वह मनुष्य के अंतकरण को प्रभावित करती है. 

यक्ष पहाड़ों से निकलने वाले बादल का बहुत खूबसूरत वर्णन करता है और कहता है जब काले बादल उन पहाड़ों में दिखते हैं तो कृष्‍ण की छवी बन जाती है. यक्ष कहता है, ” हे मेघ जब तुम उन पहाड़ों से निकलोगे तो तुम्‍हारा सांवला शरीर और भी अधिक खिल उठेगाजैसे झलकती हुई मोरशिखा से गोपाल वेशधारी कृष्‍ण का शरीर सज गया था.

वर्षा ऋतु का इतंजार सबसे ज्यादा किसानों को होता है और इसको बखूबी कालीदास ने यक्ष के जरिए बताया है. यक्ष बादलों से माल क्षेत्र के पठारी (बुन्देलखंड) के इलाकों पर बरसने को कहता है जहां किसान ने फसल बोने के लिए जोती हुई खेत में बरसात का पानी गिरने का इंतजार कर रहा हो. यक्ष कहते हैं, हे मेघ..खेती का फल तुम्‍हारे अधीन है – इस उमंग से ग्राम-बधूटियां भौंहें चलाने में भोलेपर प्रेम से गीले अपने नेत्रों में तुम्‍हें भर लेंगी. माल क्षेत्र के ऊपर इस प्रकार उमड़-घुमड़कर बरसना कि हल से तत्‍काल खुरची हुई भूमि गन्‍धवती हो उठे.

यक्ष मेघ को उत्‍तर दिशा उज्जैन के महलो में ठहरने को कहते हैं और साथ ही कहते हैं कि बरसात में उस नागर की स्त्रियों के नेत्रों की चंचलता को न देखा तो ठगा हुआ महसूस करोगे. वह कहते हैं, ” उज्‍जयिनी के महलों की ऊंची अटारियों की गोद में बिलसने से विमुख न होना. बिजली चमकने से चकाचौंध हुई वहां की नागरी स्त्रियों के नेत्रों की चंचल चितवनों का सुख तुमने न लूटा तो समझना कि ठगे गए. वहां घरों के पालतू मोर भाईचारे के प्रेम से तुम्‍हें नृत्‍य का उपहार भेंट करेंगे. वहां फूलों से सुरभित महलों में सुन्‍दर स्त्रियों के महावर लगे चरणों की छाप देखते हुए तुम मार्ग की थकान मिटाना.

इस तरह कालीदास के मेघदूत के पहले भाग ”पूर्वमेघ” में बादलों का खूबसूरत वर्णन किया गया है. वहीं इस खण्ड काव्य के दूसरे भाग ”उत्तरमेघ” में यक्ष के संदेश का वर्णन है।

आयुर्वेद के अनुसार वर्षा ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…a11.jpg

वर्षा ऋतु में वायु का विशेष प्रकोप तथा पित्त का संचय होता है। वर्षा ऋतु में वातावरण के प्रभाव के कारण स्वाभाविक ही जठराग्नि मंद रहती है, जिसके कारण पाचनशक्ति कम हो जाने से अजीर्ण, बुखार, वायुदोष का प्रकोप, सर्दी,खाँसी, पेट के रोग, कब्जियत, अतिसार, प्रवाहिका, आमवात, संधिवात आदि रोग होने की संभावना रहती है। इन रोगों से बचने के लिए तथा पेट की पाचक अग्नि को सँभालने के लिए आयुर्वेद के अनुसार उपवास तथा लघु भोजन हितकर है। इसलिए हमारे आर्षदृष्टा ऋषि-मुनियों ने इस ऋतु में अधिक-से-अधिक उपवास का संकेत कर धर्म के द्वारा शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान रखा है। इस ऋतु में जल की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें। जल द्वारा उत्पन्न होने वाले उदर-विकार, अतिसार, प्रवाहिका एवं हैजा जैसी बीमारियों से बचने के लिए पानी को उबालें, आधा जल जाने पर उतार कर ठंडा होने दें, तत्पश्चात् हिलाये बिना ही ऊपर का पानी दूसरे बर्तन में भर दें एवं उसी पानी का सेवन करें। जल को उबालकर ठंडा करके पीना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। आजकल पानी को शुद्ध करने हेतु विविध फिल्टर भी प्रयुक्त किये जाते हैं। उनका भी उपयोग कर सकते हैं। पीने के लिए और स्नान के लिए गंदे पानी का प्रयोग बिल्कुल न करें क्योंकि गंदे पानी के सेवन से उदर व त्वचा सम्बन्धी व्याधियाँ पैदा हो जाती हैं।

आहारः इस ऋतु में वात की वृद्धि होने के कारण उसे शांत करने के लिए मधुर, अम्ल व लवण रसयुक्त, हलके व शीघ्र पचने वाले तथा वात का शमन करने वाले पदार्थों एवं व्यंजनों से युक्त आहार लेना चाहिए। सब्जियों में मेथी, सहिजन, परवल,लौकी, सरगवा, बथुआ, पालक एवं सूरन हितकर हैं।

सेवफलमूँगगरम दूधलहसुनअदरकसोंठअजवायनसाठी के चावलपुराना अनाजगेहूँचावलजौखट्टे एवं खारे पदार्थदलियाशहदप्याजगाय का घीतिल एवं सरसों का तेलमहुए का अरिष्टअनारद्राक्ष का सेवन लाभदायी है।

मालपूएगुलगुलेकसार जैसे स्वादिस्ट पकवान विशेष रूप से त्यौहारोंवर्षा ऋतु अथवा सावन के महीनों में बनाए जाते थे

 

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शरद उत्तर भारत की सबसे मनोहर ऋतु है। बारिश का मौसम समाप्त होने के बाद शरद ऋतु का आगमन होता है। इस ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य काफी निराला होता है। इसकी छटा देखते ही बनती है। इसमें आकाश निर्मल हो जाता tenor.gifहै। नदियों का जल (आज भी) स्वच्छ हो जाता है। रेल से यात्रा करें तो रेलवे लाइन से लगे-सटे गड्डों पोखरों में कुमुदिनी खिली हुए दिखलाई पड़ेंगी। खिलती रात में हैं लेकिन दिन में दस-ग्यारह बजे तक खिली रहती हैं। इसी ऋतु में हारसिंगार खिलता है। निराला ने लिखा है, ‘झरते हैं चुंबन गगन के।’

  • आश्विन और कार्तिक शरद् ऋतु के दो मास होते हैं । इस ऋतु में सूर्य पिंगल और उष्ण होता है । आकाश निर्मल और कहीं-कहीं श्वेत वर्ण मेघ युक्त होता है । सरोवर कमलों सहित हंसों से शोभायमान होते हैं । सूखी भूमि चीटियों से भर जाती है ।
  • वर्षा काल में भूमिस्थ जल में अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ मिल जाते हैं । मल, मूत्र, कीट, कृमि उनका मल-मूत्र सब कुछ जल में आकर मिल जाता है । इसे निर्विष करने के लिए सूर्य की जीवाणु नाशक प्रखर किरणें, चन्द्रमा की अमृतमय किरणें और हवा आवश्यक है तथा यह सब शरद् ऋतु में प्राप्त होती है ।
  • शरद् ऋतु में रातें ठण्डी और सुहावनी हो जाती है। वन कुमुद और मालती के फूलों से सुशोभित होते हैं। अनगिनत तारों की चमक और चन्द्रमा की चांदनी से रात्रि का अन्धकार दूर हो जाता है । संसार ऐसा लगता है। मानों दूध के सागर में स्नान कर रहा हो ।
  • शरद् ऋतु के सुहावने मौसम में ऐसा कोई सरोवर नहीं है जिस में सुन्दर कमल न हों, ऐसा कोई पंकज नहीं है जिस पर भ्रमर नहीं बैठा हो, ऐसा कोई भौंरा नहीं है जो गूंज न रहा हो । ऐसी कोई भनभनाहट और पक्षियों का कलरव नहीं जो मन न हर रहा हो । कहने का तात्पर्य यह है कि शरद् ऋतु में कमल खिले हुए है, कमलों पर बैठे हुए भौरों की रसीली गूंज मनुष्यों के चित्त को चुरा रही हैं ।
  • इस ऋतु में दिन और रात का तापमान प्राय: सामान्य होता है । आलस्य के स्थान पर शरीर में चुस्ती और कार्य करने का उत्साह बढ़ जाता है । फल और सब्जियों की बहार आ जाती है । विभिन्न पदार्थ खाने को दिल करता है । चेहरे पर खुशी और जीवन में प्रसन्नता आ जाती है ।
  • शरद् ऋतु अपने साथ कई त्यौहार लाती है । जैसे- दशहरा और दीपावली । इसमें लोग मिठाइयां और नाना प्रकार के व्यंजन खाते और खिलाते हैं । खुशियां मनाते हुए इस त्यौहार को विदा करते हैं । इतने में कार्तिक पूर्णिमा का स्नान आता है । इसके साथ ही शरद् ऋतु की समाप्ति, हेमन्त के आगमन को सूचित करती है ।

शरद पूर्णिमा की रात को चंद्रमा का पूजन कर खीर का भोग लगाया जाता है, जिससे आयु बढ़ती है व चेहरे पर कान्ति आती है एवं शरीर स्वस्थ रहता है। शरद पूर्णिमा को रातभर पात्र में चंद्रमा की रोशनी में रखी खीर सुबह खाई जाती है। शरद पूर्णिमा की मनमोहक सुनहरी रात में वैद्यों द्वारा जड़ी बूटियों से औषधि का निर्माण किया जाता है।

त्योहार- श्राद्ध पक्ष, नवरात्रि, दशहरा, करवा चौथ। इस ऋतु में ही शारदीय नवरात्रि की धूम रहती है। जगह-जगह उत्सव का माहौल रहता है। इस ऋतु के अन्य व्रत और उत्सव- छठ पूजा, गोपाष्टमी, अक्षय नवमी, देवोत्थान एकादशी, बैकुंठ चतुर्दशी, कार्तिक पूर्णिमा,उत्पन्ना एकादशी, विवाह पंचमी, स्कंद षष्ठी आदि व्रत-त्योहार भी आते हैं। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी को चातुर्मास संपन्न होता है और इसी दिन भगवान अपनी योग निद्रा से जागते हैं। भगवान के जागने की खुशी में ही देवोत्थान एकादशी का व्रत इसी ऋतु में संपन्न होता है।

ऋग्वेद में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए कहा गया है-

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तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में शरद ऋतु का गुणगान करते हुए लिखा है- पंचवटी में श्रीराम-लक्ष्मण से शरदागम का वर्णन करते हुए कहते हैं:

बरषा बिगत सरद ऋतु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥

फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥

अर्थात- हे लक्ष्मण! देखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने कास रूपी सफेद बालों के रूप में अपना वृद्घापकाल प्रकट किया है। वृद्घा वर्षा की ओट में आती शरद नायिका ने तुलसीदास के साथ कवि कुल गुरु कालिदास को भी इसी अदा में बाँधा था। ऋतु संहारम के अनुसार लो आ गई यह नव वधू-सी शोभतीशरद नायिका! कास के सफेद पुष्पों से ढँकी इस श्वेत वस्त्रा का मुख कमल पुष्पों से ही निर्मित है और मस्त राजहंसी की मधुर आवाज ही इसकी नुपूर ध्वनि है। पकी बालियों से नतधान के पौधों की तरह तरंगायित इसकी तन-यष्टि किसका मन नहीं मोहती।

जानि सरद ऋतु खंजन आए।

पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥

अर्थात- शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं अर्थात पुण्य प्रकट हो जाते हैं। बसंत के अपने झूमते-महकते सुमनइठलाती-खिलती कलियाँ हो सकती हैं। गंधवाही मंद बयारभौंरों की गुंजरित-उल्लासित पंक्तियाँ हो सकती हैंपर शरद का नील धवलस्फटिक-सा आकाशअमृतवर्षिणी चाँदनी और कमल-कुमुदिनियों भरे ताल-तड़ाग उसके पास कहाँसंपूर्ण धरती को श्वेत चादर में ढँकने को आकुल ये कास-जवास के सफेद-सफेद ऊर्ध्वमुखी फूल तो शरद संपदा है। पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विरहता चाँद और उससे फूटतीधरती की ओर भागती निर्बाधनिष्कलंक चाँदनी शरद के ही एकाधिकार हैं। शरद में वृष्टि थम जाती है। मौसम सुहावना हो जाता हैं। दिन सामान्य तो रात्रि में ठंडक रहती है। शरद को मनोहारी और स्वस्थ ऋतु मानते हैं। प्रायः अश्विन मास में शरद पूर्णिमा के आसपास शरद ऋतु का सौंदर्य दिखाई देता है।[1]

शरद पूर्णिमा और महारास

शास्त्रों में शरद ऋतु को अमृत संयोग ऋतु भी कहा जाता है, क्योंकि शरद की पूर्णिमा को चन्द्रमा की किरणों से अमृत की वर्षा का संयोग उपस्थित होता है। वही सोम चन्द्र किरणें धरती में छिटक कर अन्न-वनस्पति आदि में औषधीय गुणों को सींचती है।

आश्विन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा यानी शरद पूर्णिमा के दिन यमुना के तट पर भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ महारास किया था। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्द में रास पंचाध्यायी में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इसी शरद पूर्णिमा को यमुना पुलिन में गोपिकाओं के साथ महारास के बारे में बताया गया है। मनीषियों का मानना है कि जो श्रद्धालु इस दिन चन्द्रदर्शन कर महारास का स्वाध्याय, पाठ, श्रवण एवं दर्शन करते हैं उन्हें हृदय रोग नहीं होता साथ ही जिन्हें हृदय रोग की संभावना हो गई हो उन्हें रोग से छुटकारा मिल जाता है। रास पंचाध्यायी का आखिरी श्लोक इस बात की पुष्टि भी करता है।

विक्रीडितं व्रतवधुशिरिदं च विष्णों:

श्रद्धान्वितोऽनुुणुयादथवर्णयेघः

भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं

हृद्रोगमाश्वहिनोत्यचिरेण धीरः

वस्तुतः समस्त रोग कामनाओं से उत्पन्न होते हैं जिनका मुख्य स्थान हृदय होता है। मानव अच्छी-बुरी अनेक कामनाएं करता है। उनको प्राप्त करने की उत्कृष्ट इच्छा प्रकट होती है। इच्छा पूर्ति न होने पर क्रोध-क्षोभ आदि प्रकट होने लगता है। वह सीधे हृदय पर ही आघात करता है।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के लिए कहा है-

पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।।

रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को मैं पुष्ट करता हूं।

ऋतुसंहार में महाकवि कालिदास कहते हैं- तृतीय सर्ग में शरद् ऋतु का चित्रण है- गीतकार शरद् को नववधु की तरह चित्रितकरता है। वह कहता है, प्रिये, देखो, अपने रूप सौन्दर्य से रमणीय नववधू की तरह यह शरद आ गई फूले हुए कांस के फूल ही इसकी साड़ी है ! सरोवर में खिले हुये कमल इसका सुन्दर मुखे है, और हँसों की आवाजें ही इसके नुपूरों की रूनझुना है। पके हुए धनके पौधे के तरह यह गोरी है, और लचकदार शरीर वाली है। प्यारी इस ऋतु में कांस पुष्पों से पूरी पृथ्वी सफेद दिख रही है, रातें चन्द्र किरणों से धवल कान्ति वाली हैं, हंसों के द्वारा सरिताओं का जल उज्जवल है, सरोवर प्रफुल्ल कुमुद के फूलों से श्वेताभ दिख रहे है । वनभाग सप्तच्छद के फूलों से और उपवन मालती पुष्पों सेश्वेतता लिए हुए है। वर्षाकाल चला गया है । मयूरों का नृत्य अब नहीं दिखाई पड़ता, उसके स्थान पर अब सावलि शोभित हो रही है। वर्षा में फूलने वाले कदम्ब, कुटज आदि तरूओं की शोभा अब क्षीण प्राय है। अब उसके स्थान पर सप्तच्छद वृक्षों में पुष्प सौन्दर्य बिखर रहा है ।

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शरद ऋतु में काव्य खिलता है

शरद उत्तर भारत की सबसे मनोहर ऋतु है। इसमें आकाश निर्मल हो जाता है। नदियों का जल (आज भी) स्वच्छ हो जाता है। रेल से यात्रा करें तो रेलवे लाइन से लगे-सटे गड्डों पोखरों में कुमुदिनी खिली हुए दिखलाई पड़ेंगी। खिलती रात में हैं लेकिन दिन में दस-ग्यारह बजे तक खिली रहती हैं। इसी ऋतु में हारसिंगार खिलता है। निराला ने लिखा है, ‘झरते हैं चुंबन गगन के।’ सबसे विशिष्ट शरदकालीन वातावरण का रोमांचक स्पर्श होता है। अब आप से पूछूं कि आपको समकालीन कवियों की लिखी हुई कोई कविता (जाहिर है आपको अच्छी ही कविता याद आएगी) शरद के सौंदर्य पर याद आ रही है, अगर ऐसी कोई दुर्लभ कविता खोजने पर मिल भी जाए तो वह दुर्लभ ही होगी। क्या नए कवियों को शरद का सौंदर्य प्रभावित नहीं करता?  क्या समकालीन कविता ने आस-पास के जीवन जगत को सहज मन से देखना बंद कर दिया है? रीतिकाल को हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए बहुत अच्छा काल नहीं माना जाता। कहते हैं कि वो दरबारी काल था।

फिर भी उस काल के सहृदय कवि सेनापति ने लिखा है-

कातिक की रात थोरी-थोरी सिहरात,

सेनापति को सुहात सुखी जीवन के गन हैं

फूली है कुमुद फूली मालती सघन बन

मानहुं जगत छीर सागर मगन है

 

शरद चाँदनी!-सुमित्रानंदन पंत…

शरद चाँदनी!

विहँस उठी मौन अतल

नीलिमा उदासिनी!

आकुल सौरभ समीर

छल छल चल सरसि नीर,

हृदय प्रणय से अधीर,

जीवन उन्मादिनी!

आयुर्वेद के अनुसार शरद ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

भाद्रपद एवं आश्विन ये शरद ऋतु के दो महीने हैं। शरद ऋतु स्वच्छता के बारे में सावधान रहने की ऋतु है अर्थात् इस मौसम में स्वच्छता रखने की खास जरूरत है। रोगाणाम् शारदी माताः। अर्थात् शरद ऋतु रोगों की माता है। शरद ऋतु में स्वाभाविक रूप से ही पित्तप्रकोप होता है। इससे इन दो महीनों में ऐसा ही आहार एवं औषधी लेनी चाहिए जो पित्त का शमन करे। मध्याह्न के समय पित्त बढ़ता है। तीखे नमकीन, खट्टे, गरम एवं दाह उत्पन्न करने वाले द्रव्यों का सेवन, मद्यपान, क्रोध अथवा भय, धूप में घूमना, रात्रि-जागरण एवं अधिक उपवास – इनसे पित्त बढ़ता है। दही, खट्टी छाछ, इमली, टमाटर, नींबू, कच्चे आम, मिर्ची, लहसुन, राई, खमीर लाकर बनाये गये व्यंजन एवं उड़द जैसी चीजें भी पित्त की वृद्धि करती हैं। इस ऋतु में पित्तदोष की शांति के लिए ही शास्त्रकारों द्वारा खीर खाने, घी का हलवा खाने तथा श्राद्धकर्म करने का आयोजन किया गया है। इसी उद्देश्य से चन्द्रविहार, गरबा नृत्य तथा शरद पूर्णिमा के उत्सव के आयोजन का विधान है। गुड़ एवं घूघरी (उबाली हुई ज्वार-बाजरा आदि) के सेवन से तथा निर्मल, स्वच्छ वस्त्र पहन कर फूल, कपूर, चंदन द्वारा पूजन करने से मन प्रफुल्लित एवं शांत होकर पित्तदोष के शमन में सहायता मिलती है।

गुड़ का शीराधृतकुमारी (एलोए वेरा) या तिल की मिठाइयां शरद ऋतु में लाभदायक हैं-

शरदपूनम की शीतल रात्रि छत पर चन्द्रमा की किरणों में रखी हुई दूध-पोहे अथवा दूध-चावल की खीर सर्वप्रियपित्तशामकशीतल एवं सात्त्विक आहार है। इस रात्रि में ध्यानभजनसत्संगकीर्तनचन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यंत लाभदायक है।

 

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प्राचीनकाल से शरद पूर्णिमा को बेहद महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। शरद पूर्णिमा से हेमंत ऋतु की शुरुआत होती है। IMG_20190101_074739-ANIMATION.gifशीत ऋतु दो भागों में विभक्त है। हल्के गुलाबी जाड़े को हेमंत ऋतु का नाम दिया गया है और तीव्र तथा तीखे जाड़े को शिशिर। यह दिसंबर से लगभग 15 जनवरी तक रहती है। यह ऋतु हिन्दू माह के मार्गशीर्ष और पौष मास मास के बीच रहती है। इस ऋतु में शरीर प्राय: स्वस्थ रहता है। पाचनशक्ति बढ़ जाती है।

भारत में छःप्रकार की ऋतुएँ पाई जाती हैं, जो कि संसार के किसी अन्य भागों में नहीं होती- (1) ग्रीष्म (2) वर्षा (3) शरद् (4) हेमन्त (5) शिशिरएवं (6) बसन्त ऋतु। वैसे तो अधिकांश ग्रंथों के अनुसार ऋतुओं की इतनीही संख्या है, किन्तु कुछ ग्रंथों में ऋतु की संख्या तीन अथवा पांच भी बताईगई है क्योंकि उन्होंने हेमन्त तथा शिशिर ऋतु को एक ही माना है।’

  • दोनों ऋतुओं ने हमारी परंपराओं को अनेक रूपों में प्रभावित किया है। हेमंत ऋतु अर्थात मार्गशीर्ष और पौष मास में वृश्चिक और धनु राशियां संक्रमण करती हैं। वसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु हैं।
  • हेमंत ऋतु में कार्तिक, अगहन और पौष मास पड़ेंगे तो कार्तिक मास में करवा चौथ, धनतेरस, रूप चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि तीज-त्योहार पड़ेंगे, वहीं कार्तिक स्नान पूर्ण होकर दीपदान होगा।
  • कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी पर तुलसी विवाह होगा और चातुर्मास की समाप्ति होगी, तो बैकुंठ चतुर्दशी पर हरिहर मिलन भी इसी मास में होगा।
  • अगहन अर्थात मार्गशीर्ष मास में गीता जयंती, दत्त जयंती आएगी। पौष मास में हनुमान अष्टमी, पार्श्वनाथ जयंती आदि के अलावा रविवार को सूर्य उपासना का विशेष महत्व है।
  • हेमंत ऋतु में कार्तिक, अगहन और पौष मास पड़ेंगे। कार्तिक मास में करवा चौथ, धनतेरस, रूप चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि तीज-त्योहार पड़ेंगे, वहीं कार्तिक स्नान पूर्ण होकर दीपदान होगा।

इस ऋतु के वर्णन में तो कवि लोग श्रृंगार के विविध चित्र ही प्रस्तुत करते रहे हैं। षट्ऋतुओं का वर्णन करते समय हेमन्त को अपेक्षाकृत कम स्थान ही मिला है,क्योंकि प्राकृतिक जगत् के सौन्दर्य में इसी ऋतु में भारी कमी आती है। इस काल का शीतही संयोग के लिए बाध्य करता है। रात्रि को बढ़ना संयोगी जनों के लिए सुखद है। उसकादु:ख तो केवल चकवा-चकवी को ही है। इस ऋतु ने सभी को काम के वशीभूत कर दिया कयौ सबै जगु काम बस, जीते जिते अजेइ।कुसुम सरहिं सर धनुष कर अगहनु गहन न देई।

महाकवि कालिदास की मेघदूत कविता पर हरिवंशराय बच्चन ने कहा है – हो धरणि चाहे शरद की, चाँदनी में स्नान करती। वायु ऋतु हेमंत की, चाहे गगन में विचरती। मैं स्वयं बन मेघ जाता… हेमंत में तुषार (पाला) से पूरा वातावरण ढँक जाता है। ठंडी हवाएँ चलना प्रारंभ हो जाती हैं। तापमान गिरने लगता है। दिशाएँ धूल धुसरित होती हैं। सूरज कोहरे से आच्छादित रहता है। प्रियंगु और नागकेसर के वृक्ष फूलने-फलने लगते हैं और हरसिंगार, धतुरा, गेंदा, कचनार, मधुमालती आदि बहार पर होते हैं।

रामायण में लिखा- लक्ष्मण द्वारा राम से हेमन्त ऋतु की ओर संकेत करते समय देखा जा सकता है। लक्ष्मण, राम से कहते है कि इस ऋतु मे अधिक ठण्डक या पाले के कारण लोगों का शरीर रूखा हो जाता है । पृथ्वी पर रबी की खेती लहलहाने लगती है (‘नीहारपुरूषो लोकः पृथिवी सस्यमालिनी/ 3/16/5) । संभवतः इसी ऋतु में प्रायः सभी जनपदों के निवासियों की अन्न प्राप्ति विषयक कामनाएँ प्रचुररूपेण पूर्ण हो जाती थी ।(प्राज्यकामा जनपदाः सम्पन्नतरगोरसा’ / 3/16/7) गोरस भी खूब मात्रा में हुआ करता था ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार…

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हेमंत आगमन का धार्मिक महत्व : हेमंत ऋतु अर्थात् मार्गशीष और पौष मास में वृश्चिक और धनु राशियाँ संक्रमण करती हैं। बसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु है। हेमंत ऋतु में कार्तिक, अगहन और पौष मास पड़ेंगे। कार्तिक मास में करवा चौथ, धनतेरस, रूप चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि तीज-त्योहार पड़ेंगे, वहीं कार्तिक स्नान पूर्ण होकर दीपदान होगा।  इस माह में उज्जैन में महाकालेश्वर की दो सवारी कार्तिक और दो सवारी अगहन मास में निकलेगी। कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी पर तुलसी विवाह होगा और चातुर्मास की समाप्ति होगी, तो बैकुंठ चतुर्दशी पर हरिहर मिलन भी इसी मास में होगा। अगहन अर्थात् मार्गशीर्ष मास में गीता जयंती, दत्त जयंती, सोमवती अमावस्या के अलावा काल भैरव तथा आताल-पाताल भैरव की सवारी भी निकलेगी। पौष मास में हनुमान अष्टमी, पार्श्वनाथ जयंती आदि के अलावा रविवार को सूर्य उपासना का विशेष महत्व है।

साहित्यिक उल्लेख

महाकवि कालिदास का अमर ग्रंथ ऋतुसंहारम्‌ छहों ऋतुओं का इतना अनूठा वर्णन कर अमर हो गया कि उसके हजारों अनुवाद विश्व की सैकड़ों भाषाओं में उपलब्ध हैं। ऋतुसंहारम्‌ में महाकवि कालिदास ने हेमंत ऋतु का वर्णन कुछ यूँ किया है-

नवप्रवालोद्रमसस्यरम्यः प्रफुल्लोध्रः परिपक्वशालिः।

विलीनपद्म प्रपतत्तुषारोः हेमंतकालः समुपागता-यम्‌॥

अर्थात- बीज अंकुरित हो जाते हैंलोध्र पर फूल आ चुके हैं धान पक गया और कटने को तैयार हैलेकिन कमल नहीं दिखाई देते हैं और स्त्रियों को श्रृंगार के लिए अन्य पुष्पों का उपयोग करना पड़ता है। ओस की बूँदें गिरने लगी हैं और यह समय पूर्व शीतकाल है। महिलाएँ चंदन का उबटन और सुगंध उपयोग करती हैं। खेत और सरोवर देख लोगों के दिल हर्षित हो जाते हैं।

ऋतुसंहार के चतुर्थ सर्ग में हेमन्त ऋतु वर्णन है- गीतकार ऋतु के नये-नये चित्र प्रस्तुत करता है । वह बोलता है, प्रिये, हेमन्त काल में ठण्डक की वजह से विलासिनी स्त्रियाँ अपने बाहुओं में केयूर और बलय आदि आभूषण नहीं धारण करती, नितम्बों में नवीन वस्त्र एवं पयोघरों पर सूक्ष्म रेशमी वस्त्र धारण नहीं करती । प्रियंगु लता ठण्ड से पक गई है । वह ठण्डी हवा से कॉप रही है और उत्तरोत्तर है। पीली पड़ती जा रही है । यह बेचारी अब विरहणी स्त्री सी पीली हो रही है ।

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राजस्थान में तो लोक मानस जाड़े की अनेक मधुर कल्पनाओं से सुरूचित साहित्य रचता रहा है। राजस्थानी में शीतकाल को सियाला कहते हैं। नायिका सियाले में अकेले नहीं रहना चाहती। वह नायक को परदेश जाने से रोकती है “अकेले मत छोड़ोजी सियाला में।”

रचनाकार मलिक मुहम्मद जायसी ने षट् ऋतु वर्णन खंड में कुछ यूँ कहा है-

ऋतु हेमंत संग पिएउ पियाला।

अगहन पूस सीत सुख-काला॥

धनि औ पिउ महँ सीउ सोहागा।

दुहुँन्ह अंग एकै मिलि लागा।

आयुर्वेद में हेमंत ऋतु को सेहत बनाने की ऋतु कहा गया है। हेमंत में शरीर के दोष शांत स्थिति में होते हैं। अग्नि उच्च होती है इसलिए वर्ष का यह सबसे स्वास्थ्यप्रद मौसम होता है, जिसमें भरपूर ऊर्जा, शरीर की उच्च प्रतिरक्षा शक्ति तथा अग्नि चिकित्सकों को छुट्टी पर भेज देती है। इस ऋतु में शरीर की तेल मालिश और गर्म जल से स्नान की आवश्यकता महसूस होती है। कसरत और अच्छी मात्रा में खठ्ठा-मीठा और नमकीन खाद्य शरीर की अग्नि को बढ़ाते हैं। हेमंत ऋतु में शीत वायु के लगने से अग्नि वृद्घि होती है। चरक ने कहा है-

“शीते शीतानिलस्पर्शसंरुद्घो बलिनां बलीः।

पक्ता भवति…”

शरद के बाद इस ऋतु में मौसम सुहावना होता है। जलवायु अच्छी होती है। तेज धूप से कीड़े-मकोड़ों का संहार हो जाता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह उत्तम समय होता है। छः-छः मास के दो अयन होते हैं। दक्षिणायन में पावस, शरद और हेमंत ऋतु तथा शिशिर, बसंत तथा ग्रीष्म उत्तरायन की ऋतुएँ हैं।

सेहत बनाने की ऋतु- इसलिए हेमन्त ऋतु में स्निग्ध घी, तैल आदि से युक्त, अम्ल तथा लवण रस युक्त भोज्य प्रदार्थों का एवं दूध से बने पदार्थों का निरन्तर सेवन करना चाहिए। हेमन्त ऋतु में दूध तथा उससे बनने वाले पदार्थ, ईंख से बनने वाले पदार्थ गुड़,खाण्ड आदि, ‌‌‌तेल, घृत, नये चावलों का भात, उड़द की दाल एवं उष्ण जल का सेवन करने वाले मनुष्यों की आयु क्षीण नहीं होती अर्थात्‌ वे दीर्घायु तथा स्वस्थ रहते हैं।

 

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बसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु है।  शिशिर में कड़ाके की ठंड पड़ती है। घना कोहरा छाने लगता है। ओस से कण-कण भीग जाता है। दिशाएं धवल और उज्ज्वल हो जाती हैं मानो वसुंधराsource.gif और अंबर एकाकार हो गए हों।

यह ऋतु हिन्दू माह के माघ और फाल्गुन के महीने अर्थात पतझड़ माह में आती है। इस ऋतु में प्रकृति पर बुढ़ापा छा जाता है। वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। चारों ओर कुहरा छाया रहता है। इस ऋतु से ऋतु चक्र के पूर्ण होने का संकेत मिलता है और फिर से नववर्ष और नए जीवन की शुरुआत की सुगबुगाहट सुनाई देने लगती है।

अंग्रेजी माह अनुसार यह ऋ‍तु 15 जनवरी से पूरे फरवरी माह तक रहती है। इस ऋतु में मकर संक्रांति का त्योहार आता है, जो हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होना शुरू होता है। 

इस ऋतु में मकर संक्रांति का त्योहार आता है, जो हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होना शुरू होता है। इसी ऋतु में हिन्दू मास फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का महापर्व मनाया जाता है।

शिशिर में वातावरण में सूर्य के अमृत तत्व की प्रधानता रहती है तो शाक, फल, वनस्पतियां इस अवधि में अमृत तत्व को अपने में सर्वाधिक आकर्षित करती हैं और उसी से पुष्ट होती हैं। मकर संक्रांति पर शीतकाल अपने यौवन पर रहता है।

ऋतुसंहार में महाकवि कालिदास कहते हैं- पञ्चम सर्ग में कवि शिशिर का हृदयहारी वर्णन करता है- वह कहता है प्रिये जाड़े की ऋतु में चन्दन, जो चन्द्र किरणों की तरह शीतल होता है बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। भवनों की छत ठण्डक के कारण सुहावनी नहीं प्रतीत होती। जाड़े की बर्फीली हवा भी नहीं सुहाती। इस शिशिर काल में मीठा भोजन अच्छा लगता है। स्वादिष्ट भाइ, ईख का रस भी सुखकर होता है। इस काल में बिलासिनी की रमजेच्छा बलवती हो जाती है। जिनके पति बाहर हैं ऐसी युवतियों के चित को शिशिर काल व्यथित कर देता है।

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कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री कहते हैं-

शिशिरे स्वदंते वहितायः पवने प्रवाति!

अर्थात्- शिशिर में ठंढी हवा बहती है, तो आग तापना मीठा लगता है।

ऋग्वेद के अनुसार

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सुश्रुत संहिता के अनुसार

शिशिरे शीते अधिकं वातवृष्टयाकुलादिशा

अर्थात्- शिशिर ऋतु में शीत अधिक होता है दिशाएँ वायु एवं वर्षा से व्याकुल रहती हैं। शेष लक्षण हेमन्त जैसे होते है।

चरक संहिता के अनुसार

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महाकवि श्रीहर्ष  ने अपने संस्कृत महाकाव्य नैषधीयचरित में लिखा है-

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भद्रबाहु संहिता में लिखा है-

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आयुर्वेद के अनुसार शिशिर ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

शीत ऋतु (दिसंबर-जनवरी) में उपयुक्त आहारa12.jpg

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शीत ऋतु के अंतर्गत हेमंत और शिशिर ऋतु आते हैं। यह ऋतु विसर्गकाल अर्थात् दक्षिणायन काअंतकाल कहलाती है। इस काल में चन्द्रमा की शक्ति सूर्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। इसलिए इस ऋतु में औषधियाँ, वृक्ष, पृथ्वी की पौष्टिकता में भरपूर वृद्धि होती है व जीव जंतुभी पुष्ट होते हैं। इस ऋतु में शरीर में कफ का संचय होता है तथा पित्तदोष का नाश होता है। शीत ऋतु में स्वाभाविक रूप से जठराग्नि तीव्र रहती है, अतः पाचन शक्ति प्रबल रहती है। ऐसाइसलिए होता है कि हमारे शरीर की त्वचा पर ठंडी हवा और हवा और ठंडे वातावरण का प्रभावबारंबारपड़ते रहने से शरीर के अंदर की उष्णता बाहर नहीं निकल पाती और अंदर ही अंदर इकट्ठी होकर जठराग्नि को प्रबल करती है। अतः इस समय लिया गया पौष्टिक और बलवर्धक आहार वर्षभर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है। इस ऋतु में एक स्वस्थ व्यक्ति को अपनी सेहतकी तंदरूस्ती के लिए किस प्रकार का आहार लेना चाहिए ? शरीर की रक्षा कैसे करनी चाहिए ? आइये, उसे हम जानें-

शीत ऋतु में खारा तथा मधु रसप्रधान आहार लेना चाहिए।पचने में भारी, पौष्टिकता से भरपूर, गरम व स्निग्ध प्रकृति के घी से बने पदार्थों का यथायोग्य सेवन करना चाहिए। वर्षभर शरीर की स्वास्थ्य-रक्षा हेतु शक्ति का भंडार एकत्रित करने के लिए उड़दपाक, सालमपाक, सोंठपाक जैसेवाजीकारक पदार्थों अथवा च्यवनप्राश आदि का उपयोग करना चाहिए।

मौसमी फल व शाक, दूध, रबड़ी, घी, मक्खन, मट्ठा, शहद, उड़द, खजूर, तिल, खोपरा, मेथी, पीपर, सूखा मेवा तथा चरबी बढ़ाने वाले अन्य पौष्टिक पदार्थ इस ऋतु में सेवन योग्य माने जाते हैं। प्रातः सेवन हेतु रात को भिगोये हुए कच्चे चने (खूब चबाकर खाये), मूँगफली, गुड़, गाजर, केला, शकरकंद, सिंघाड़ा, आँवला आदि कम खर्च में सेवन किये जाने वाले पौष्टिक पदार्थ हैं।

शीत ऋतु में उपयोगी पाक- अदरक पाकखजूर पाकबादाम पाकमेथी पाकसूंठी पाकअंजीर पाकअश्वगंधा पाक

शीतकाल में पाक का सेवन अत्यंत लाभदायक होता है। पाक के सेवन से रोगों को दूर करने में एवं शरीर में शक्ति लाने में मदद मिलती है। स्वादिष्ट एवं मधुर होने के कारण रोगी को भी पाक का सेवन करने में उबान नहीं आती। पाक में डाली जाने वाली काष्ठ-औषधियों एवं सुगंधित औषधियों का चूर्ण अलग-अलग करके उन्हें कपड़छान कर लेना चाहिए। किशमिश, बादाम, चारोली, खसखस, पिस्ता, अखरोट, नारियल जैसी वस्तुओं के चूर्ण को कपड़छन करने की जरूरत नहीं है। उन्हें तो थोड़ा-थोड़ा कूटकर ही पाक में मिला सकते हैं।

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