पँचतत्व चिकित्सा और नाड़ी विज्ञान

पँचतत्व चिकित्सा और नाड़ी विज्ञान



सनातन सँस्कृति, वैदिक परम्परा में मानव शरीर में साढ़े तीन लाख नाड़ियों के बारे में बड़ी ही सूक्ष्मता से वर्णित है। जिनमें से 72000 नाड़ियाँ कान में व नाभि से सीधे तौर पर जुड़ी हैं।

तत्वदर्शियों (योगियों) के अनुसार, "पँचतत्व चिकित्सा  के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है। पँचतत्व  चिकित्सा के दृष्टिकोण से नाड़ियाँ शरीर में उर्जाचक्र का समन्वय करती हैं, जिसे हम नाड़ी चक्र भी कह सकते हैं।"

यह नाड़ियाँ शरीर मे कुछ इस प्रकार आपस में जुड़ी हुई व फैली हुई हैं, जैसे पृथ्वी पर लाखों जल स्त्रोत, जैसे झील,नदी, तालाब व महासागर। जो आपस में अलग होकर भी समानः रूप से जल स्रोत ही हैं, और आपस में एक दूसरे के पूरक भी। जिसे हम शरीर में 108 तरीको से विभाजित करके आराम से समझ सकते हैं, किन्तु इसके लिए व्यक्ति विशेष को तत्वदर्शी (योगी व समाधि) होना होगा, जिसने अपना आत्मसाक्षात्कार कर लिया, वह योगी (तत्वदर्शी) इसे और भी सूक्ष्मता से 112 या 114 प्रकार से समझ सकता है।

पर यदि हम साधारणतः पहले कुँडलिनी के 7 चक्र व 14 मुख्य नाड़ियां को ही समझ कर पँचतत्व ऊर्जा चक्र को समझकर किसी भी परिस्थिति में किसी भी रोगी की चिकित्सा कर सकते हैं।

आइए पहले कुँडलिनी के 7 चक्र व प्रमुख नाड़ियों को समझते हैं:-
पद्मासन मुद्रा 1. मूलाधार चक्र 2. स्वाधिस्ठान चक्र 3. नाभि चक्र 4. अनाहत चक्र 5. विशुद्धि चक्र 6. आज्ञा चक्र 7. सहस्रार चक्र ;. A. कुण्डलिनी B. ईड़ा नाड़ी C. सुषुम्ना नाड़ी D. पिंगला नाड़ी

कुँडलिनी को आगामी लेख में विस्तार से परिभाषित करने का प्रयास करेंगें, अभी केवल 14 मुख्य नाड़ियों को समझने का "शांडिल्य उपनिषद" के माध्यम से प्रयास करेंगें:- ,

शांडिल्य निषद का प्रथम अध्याय

- *सुषुम्नायाः सव्यभागे इडा तिष्ठति*
👉🏼 सव्य माने वायी तरफ
इस सुषुम्ना नाड़ी के बायीं ओर इड़ा नामक नाड़ी है। 
*दक्षिणभागे पिङ्गला।*
तथा दायीं ओर पिंगला नाड़ी स्थित है। 
*इडायां चन्द्रश्चरति । पिङ्गलायां रविः*
इड़ा में चन्द्रमा चलायमान रहता है और पिंगला में सूर्य विचरण करता है। 
*तमोरूपश्चन्द्रः। रजोरूपो रविः। विषभागो रविः*
चन्द्रमा तमोगुण  के स्वरूप वाला एवं सूर्य रजोगुण के स्वरूप से युक्त है। सूर्य विष का प्रभाव है।
*अमृतभागश्चन्द्रमाः*
चन्द्रमा अमृत का क्षेत्र है। 
*तावेव सर्वकालं धत्तः। सुषुम्ना कालभोक्त्री भवति।*
यह दोनों सम्पूर्ण काल को धारण करते हैं। सुषुम्ना नाड़ी काल का उपभोग करने वाली है। 
*सुषुम्नापृष्ठपार्श्वयोः सरस्वतीकुहू भवतः ।*
सुषुम्ना के पृष्ठ भाग (पीछे की तरफ) की तरफ सरस्वती नाड़ी विद्यमान है तथा उसके बगल के क्षेत्र में कुहू नाड़ी स्थित है। 
*यशस्विनी-कुहूमध्ये वारुणी प्रतिष्ठिता भवति*
यशस्विनी एवं कुहू के मध्य में वारुणी नाड़ी प्रतिष्ठित है।
*पूषासरस्वतीमध्ये पयस्विनी भवति ।*
 पूषा और सरस्वती के मध्य में पयस्विनी नाड़ी स्थित है।
*गान्धारीसरस्वतीमध्ये यशस्विनी भवति ।*
 गान्धारी और सरस्वती के मध्य में यशस्विनी नाड़ी विद्यमान है। 
*कन्दमध्येऽलम्बुसा भवति*
कन्द के बीच में अलम्बुसा नाड़ी है। 
*सुषुम्नापूर्वभागे मेढ्रान्तं कुहूर्भवति ।*
सुषुम्ना नाड़ी के पूर्व भाग में लिंग क्षेत्र तक कुहू नाड़ी फैली हुई है। 
*कुण्ड- लिन्या अधश्चोर्ध्वं वारुणी सर्वगामिनी भवति।* 
कुण्डलिनी के नीचे एवं ऊपर की ओर वारुणी नाड़ी चारों तरफ गयी हुई है।
*यशस्विनी सौम्या च पादाङ्गुष्ठान्तमिष्यते*
 यशस्विनी और सौम्या पैर के अँगूठे तक फैली हुई है।
*पिङ्गला चोर्ध्वगा याम्यनासान्तं भवति*
 पिङ्गला नाड़ी ऊपर की तरफ चलकर के दायीं नासिका तक पहुँचती है। 
*पिङ्गलाया: पृष्ठतो याम्यनेत्रान्तं पूषा भवति ।*
पिंगला के पृष्ठ भाग की तरफ से दायीं आँख तक पूषा नाड़ी फैली हुई है। 
*याम्यकर्णान्तं यशस्विनी भवति*
दायें कान तक यशस्विनी स्थित है। 
*जिह्वाया ऊर्ध्वान्तं सरस्वती भवति*
जिह्वा के ऊपरी भाग तक सरस्वती नाड़ी प्रतिष्ठित है।
*आसव्यकर्णान्तमूर्ध्वगा शङ्खिनी भवति*
 बायें कान तक ऊपर की ओर गमन करती हुई शंखिनी नाड़ी स्थित है। 
*इडापृष्ठभागात्सव्यनेत्रान्तगा गान्धारी भवति*
इड़ा नाड़ी के पृष्ठ भाग की ओर से बायें नेत्र तक गमन करने वाली गांधारी नाड़ी कहलाती है। 
*पायुमूलादधोर्ध्वगाऽलम्बुसा भवति*
गुदा क्षेत्र के मूल से नीचे-ऊपर की ओर जाने वाली अलम्बुसा नाड़ी कहलाती है। 
*एतासु चतुर्दशसु नाडीष्वन्या नाड्यः संभवन्ति।*
इन चौदह प्रकार की नाड़ियों में अन्य और दूसरी नाड़ियाँ भी स्थित हैं। 
*तास्वन्यास्तास्वन्या भवन्तीति विज्ञेयाः*
उन नाड़ियों के अन्दर भी अन्य इस प्रकार की बहुत सी नाड़ियाँ हैं। 
*यथाऽश्वत्थादिपत्रं सिराभिर्व्याप्तमेवं शरीरं नाडीभिर्व्याप्तम् ॥*
जिस प्रकार से पीपल आदि के पत्ते शिराओं (केशों) से संव्याप्त होते हैं, उसी तरह शरीर भी तरह-तरह की नाड़ियों से संव्याप्त है ॥


इस प्रकार मुख्य 3 नाड़ी:-  ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। ये तीनों मेरुदण्ड से जुड़े हैं। इसके आलावे गांधारी - बाईं आँख से, हस्तिजिह्वा दाहिनी आँख से, पूषा दाहिने कान से, यशस्विनी बाँए कान से, अलंबुषा मुख से, कुहू जननांगों से तथा शंखिनी गुदा से जुड़ी होती है। अन्य उपनिषद १४-१९ मुख्य नाड़ियों का वर्णन करते हैं।

ईड़ा: ऋणात्मक ऊर्जा का वाह करती है। शिव स्वरोदय, ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है - जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे स्थित है।

पिंगला: धनमात्मक  ऊर्जा का संचार करती है। इसको सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है।पिंगला का उद्गम मूलाधार  के दाहिने भाग से होता है जबकि ईडां का बाएँ भाग से।

सुषुम्ना: नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं. इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है। सुषुम्ना नाड़ी जिससे श्वास, प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही प्रवाहित होती है। सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही 'योग' कहा जाता है। योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह रास्ता है जिसके द्वारा शरीर की ऊर्जा का परिवहन होता है।

  • सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं।
  • अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं और मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। परन्तु सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, असल में तभी से यौगिक जीवन शुरू होता है।

यह लेख आदियोगी-आदिगुरु प्रभो शिव से प्रेरित वैदिक परम्पराओ से ओत प्रोत समस्त सनातनियो को समर्पित है।


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