पँचतत्व और सनातन संस्कृति

🕉 पँचतत्व और सनातन संस्कृति🕉

  सूक्ष्म से विराट की यात्रा

    सृष्टि की उत्पत्ति निर्गुण ब्रह्म से सगुण ब्रह्म की यात्रा है, दुनिया के अधिकांश सम्प्रदाय निर्गुण शब्द का अर्थ ईश्वर को गुण विहीन  मानते हैं। लेकिन यदि हम अवतारों की बात करे तो ईश्वर सगुण यानि जिसके भीतर सारे गुण विद्यमान है, के रूप में अवतरित होता है। यदि ब्रह्म गुणविहीन है तो सगुण ब्रह्म में गुण कहा से आएंगे। इस् गूढ़ विषय को जानने के तत्व ज्ञान (पँचतत्व), चौदह ब्रह्म, परा, अपरा, खानियाँ, अर्थात् त्रिविधा प्रकृति को समझने की आवश्यकता है। 
तत्व ज्ञान पर चर्चा आगामी लेख में करेंगें, अन्यथा विषय से भटक जाएंगे।

    सगुण ब्रह्म अपनी जितनी कलाओं से युक्त होकर अवतरित होता है, उतना ही गुणवान और ऐश्वर्ययुक्त होता है। जहाँ कोई गुण शेष रह जाता है, वहीं अवगुण दिखता, क्योंकि जिस प्रकार प्रकाश की अनुपस्थिति ही अंधकार है, उसी तरह जहाँ गुण नहीं वहीं दोष है। पर आजकल कुछ मूर्ख ईश्वर में भी दोष (गुणहीन) देख लेते है, लगता है वो ईश्वर से अधिक गुणवान है।
     जिसमें कोई अवगुण नहीं, दोष नहीं सिर्फ वही ज्ञान योग्य और आनंदमय है।
ईश्वर ने हमारी रचना क्यों की?
 
ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी कि उस अनंत गणनायक ब्रह्म को हमारी उत्पत्ति करनी पड़ी? वह तो स्वयं सर्वशक्तिमान, ऐश्वर्यशाली और पूर्ण गुणवान है? भला उसे भी किसी वस्तु की कमी आन पड़ी जिसके लिए उसे हमारी रचना करनी पड़ी?  
  मान लीजिए आपको कोई बढ़िया नौकरी या धन मिल गया, और उससे आपके पास अतुल धनवान, ऐश्वर्यशाली, शक्ति सम्पन्न, बलशाली हो जाये, आपके आसपास आप जैसा कोई दूसरा गुणवान नहीं जो आपसे टक्कर ले सके तो आप अपने उस धन, ऐश्वर्य, गुणों, शक्ति का क्या करेंगे, सोचिएगा ....??

    शायद वही करेंगे जो ईश्वर ने किया कि अपने समान ही गुणवान, ऐश्वर्यशाली संतति की उत्पत्ति जिससे वह भी   वैभव का आनंद ले सके, उसको भी आपकी संपत्ति, गुणों का अधिकार मिल सके। जो ईश्वर की रचनात्मक नहीं वह गुणवान नहीं हो सकते इसको गंभीरता से चिंतन करे। 

ईश्वर व जीव के बीच अंतर

प्रश्न यह है कि मनुष्य के लिए ईश्वर पहेली क्यों है, जब
भगवत गीता में साफ कहा गया है यह जीव मेरा ही अंश है। प्रत्येक जीवआत्मा मेरा ही अंश है। 

ईश्वर सर्वगुण होने से आकाश की भांति उसका कोई ओर छोर नहीं। जिस प्रकार इस पृथ्वी पर जल का स्रोत या परमपिता सागर है, उसी प्रकार हम उस परमपिता सागर की एक बूंद है। आप सागर की एक बूंद को चखना उसमें भी थोड़ा नमक मिलेगा उसमें भी हाइड्रोजन व आक्सीजन है पर थोड़ी मात्रा में। इसका तात्पर्य यह हुआ जो गुण सागर में है, वही गुण सागर के उस नन्ही बून्द में भी है, पर दोनो की मात्रा में अंतर है। सागर में उस जैसी अपार नन्ही नन्ही नमकीन की बूंदे है, इसीलिए सागर में उस बून्द के मुकाबले अनन्त मात्रा में नमक है।

ठीक इसी तरह जो उस सच्चिदानंद में गुण है, वही गुण हमारे भीतर भी अल्प मात्रा में विद्यमान है। इसीलिए हमारा बल, ऐश्वर्य, ज्ञान, स्मरण शक्ति सीमित है। पर उस ब्रह्म ईश्वर को अनंत जीवो के अनंत कर्म, अनंत गति उसे याद है।

ईश्वर व जीव में गुणों की समानता

   ईश्वर व जीव में एक गुण की समानता अवश्य है वह है अस्तित्व की, यह ईश्वर और हममें समानता है। हमारा अस्तित्व आत्मस्वरूप में था, और है, और रहेगा भी, उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता है। हम शरीर को वस्त्रों की भांति भले बार बार् बदल लें,  पर हमारी चैतन्यरूप आत्मा अविनाशी है। यह उपकार उस अनंत ने हम पर अवश्य किया, इसीलिए यह यात्रा तब तक चलती है जब तक हम ईश्वर के समान ही गुणयुक्त ऐश्वर्यशाली नहीं हो जाते। 
  अतः अध्यात्म की यात्रा बून्द से सागर बनने की यात्रा है, अपूर्ण से पूर्ण बनने की यात्रा है। सुख से आनंद की यात्रा है। सुख का विलोम दुःख होता है, अतः जो सुखी होना चाहता है, उसे दुःख के लिए भी तैयार रहना चाहिए पर आनन्द का कोई विलोम नहीं यही सफल और सच्ची यात्रा है, जिसका कोई दूसरा पर्याय नहीं, जिसका कोई विलोम नही .....

🙏 धर्मस्य मूलम् ज्ञानम् 🙏

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